प्रश्न‒आजकल
कई लोग जीवरहित अण्डा खानेमें दोष नहीं मानते; यह
कहाँतक उचित है ? उत्तर‒जीवरहित होनेपर भी वह साग-सब्जीकी तरह शुद्ध नहीं है,
प्रत्युत महान् अशुद्ध है; क्योंकि वह अण्डा महान अपवित्र रज (रक्त) और मांससे ही बनता
है । माताएँ-बहनें जब रजस्वला हो जाती हैं,
तब उनको हम छूते भी नहीं, दूरसे ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि उनको छूनेसे अपवित्रता आती है । रजस्वला स्त्रीकी छाया
पड़नेसे साँप अन्धे हो जाते हैं और पापड़ काले पड़ जाते हैं । जलाशयको छूनेसे उसमें जीव-जन्तु
पैदा हो जाते हैं । अन्न, वस्त्र आदिको छूनेसे वे अपवित्र हो जाते हैं । कारण कि रजस्वला स्त्रीके शरीरसे
जहर निकलता है, जिसके निकल जानेपर वह शुद्ध हो जाती है । इस प्रकार जिस रजको
अपवित्र मानते है, उसी रजसे अण्डा बनता है । अतः अण्डा खानेवालेमें वह अपवित्रता
आयेगी ही । जो व्यक्ति जीवरहित अण्डा खाने लग जायगा,
वह फिर जीववाला अण्डा भी खाने लगेगा । इसके सिवाय जीवरहित अण्डामें
जीववाले अण्डाकी मिलावट न हो‒इसका भी क्या पता ? अतः प्रत्येक दृष्टिसे अण्डा खाना निषिद्ध है,
पाप है । प्रश्न‒जड़ी-बूटियाँ
उखाड़नेमें भी हिंसा होती है । अतः उनसे बनी हुई दवाइयाँ लेनी चाहिये या नहीं ? उत्तर‒चतुर्थाश्रमी संन्यासी, त्यागी अगर जड़ी-बूटियोंसे बनी शुद्ध दवाई भी न लें तो अच्छा
है;
क्योंकि उनमें त्याग ही मुख्य है । ऐसे तो त्याग सबके लिये ही
अच्छा है,
पर गृहस्थ आदि यदि जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयाँ लें तो उनके लिये
उतना दोष नहीं है । जैसे, जो खेती आदि करते हैं, उनके द्वारा अनेक जीव-जन्तुओंकी हिंसा होती है, पर उस हिंसाका उतना दोष नहीं लगता;
क्योंकि खेतीसे उत्पन्न होनेवाले अन्न आदिके द्वारा प्राणियोंका
जीवन चलता है । ऐसे ही जो लोग जड़ी-बूटियाँ उखाड़ते हैं,
उनके द्वारा हिंसा तो होती है, पर उसका उतना दोष नहीं लगता,
क्योंकि उस ओषधिके द्वारा लोगोंको नीरोगता प्राप्त होती है । पद्मपुराणमें आता है कि मनुष्य किसी भी जलाशयका पानी पीये तो
उस जलाशयमेंसे थोड़ी-सी मिट्टी निकालकर किनारेपर डाल दे । इसका तात्पर्य यह है कि वह
जलाशय किसी दूसरे व्यक्तिने खुदवाया है । अतः उसमेंसे मिट्टी निकालनेसे जलाशयके खोदनेमें
हमारा भी हिस्सा हो जायगा, जिससे उस जलाशयका पानी पीने (पराया हक लेने)-का दोष हमें नहीं
लगेगा । ऐसे ही जो जड़ी-बूटियाँ औषध बनानेके काममें आती हों,
उनको जल आदिसे पुष्ट करना चाहिये,
उनकी विशेष रक्षा करनी चाहिये,
उनको निरर्थक नहीं उखाड़ना चाहिये । प्रश्न‒रोग
किस प्रकार पैदा होते है ?
उत्तर‒रोग दो प्रकारसे पैदा होते हैं‒प्रारब्धसे और कुपथ्यसे । पुराने पापोंका फल भुगतानेके
लिये शरीरमें जो रोग पैदा हो जाते है, वे ‘प्रारब्धजन्य’ हैं । जो रोग निषिद्ध खान-पानसे,
आहार-विहारसे पैदा होते हैं वे ‘कुपथ्यजन्य’
हैं । |