आयुर्वेदमें शरीरकी ही मुख्यता रहती है । अतः किसी भी तरहसे
शरीर स्वस्थ, नीरोग रहे‒इसके लिये आयुर्वेदमें जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयोंके तथा मांस,
मदिरा, आसव आदिके सेवनका विधान आता है । धर्मशास्त्रमें सुखभोगकी मुख्यता
रहती है;
अतः उसमें भी स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये किये जानेवाले अश्वमेध
आदि यज्ञोंमें पशुबलिका, हिंसाका वर्णन आता है । वैदिक मन्त्रोंके द्वारा विधि-विधानसे
की हुई (वैदिकी) हिंसाको हिंसा नहीं माना जाता । हिंसा न माननेपर भी हिंसाका पाप तो
लगता ही है ।[*]
इसके सिवा मांसका सेवन करते-करते मनुष्यका स्वभाव बिगड़ जाता
है । फिर उसमें परलोककी प्रधानता न रहकर स्थूलशरीरकी प्रधानता हो जाती है और वह शास्रीय
विधानके बिना भी मांसका सेवन करने लग जाता है । आयुर्वेदमें हिंसाकी सीमा नहीं होती;
क्योंकि उसमें स्थूलशरीरको ठीक रखनेकी मुख्यता है । अतः उसमें
परलोकके बिगड़नेकी परवाह नहीं होती । धर्मशास्त्रमें सीमित हिंसा होती है । जिससे परलोक
बिगड़ जाय,
ऐसी हिंसा नहीं होती । परन्तु धर्मशास्त्रमें मनुष्यके कल्याण
(मोक्ष)-की परवाह नहीं होती । तात्पर्य है कि आयुर्वेद और धर्मशास्त्र‒दोनों ही प्रकृतिके
राज्यमें हैं । जबतक अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व रहता है, तबतक मनुष्य पापसे हिंसासे बच ही नहीं सकता
। वह अपनी भी हिंसा (पतन) करता है और दूसरोंकी भी । परन्तु जिसमें सकामभाव नहीं है,
उसके द्वारा हिंसा नहीं होती । अगर उसके द्वारा हिंसा हो भी
जाय तो भी उसको पाप नहीं लगता; क्योंकि पाप कामना (राग)-में ही है,
क्रियामें नहीं । लोगोंकी प्रायः ऐसी धारणा बन गयी है कि औषधरूपमें मांस आदि अशुद्ध
चीज खाना बुरा नहीं है । परन्तु ऐसा माननेवाले वे ही लोग है,
जिनका केवल शरीरको ठीक रखनेका,
सुख-आरामका ही लक्ष्य है; जो धर्मकी अथवा अपने कल्याणकी परवाह नहीं करते । औषधरूपमें भी
अभक्ष्य-भक्षण करनेसे हिंसा और अपवित्रता तो आ ही जाती है । अतः औषधरूपमें भी अभक्ष्य-भक्षण
नहीं करना चाहिये । प्रश्न‒अगर
शरीर रहेगा तो मनुष्य साधन-भजन करेगा; अतः
अभक्ष्य-भक्षण करनेसे अगर शरीर बच जाय तो क्या हानि है ? उत्तर‒अभक्ष्य-भक्षण करनेसे शरीर बच जाय, मौत टल जाय‒यह कोई नियम नहीं है । अगर आयु शेष
होगी तो शरीर बच जायगा और आयु शेष नहीं होगी तो शरीर नहीं बचेगा;
क्योंकि शरीरका बचना अथवा न बचना प्रारब्धके अधीन है,
वर्तमानके कर्मोंके अधीन नहीं । अभक्ष्य-भक्षणसे शरीर बच नहीं
सकता केवल शरीरकी किञ्चित् पुष्टि हो सकती है, पर अभक्ष्य-भक्षणसे जो पाप होगा,
उसका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा । मनुष्य साधन-भजनका तो केवल बहाना बनाता है,
वास्तवमें तो शरीरमें राग-आसक्ति रहनेसे ही वह अशुद्ध दवाइयोंका
सेवन करता है । जिसका शरीरमें राग नहीं है, जिसका उद्देश्य अपना कल्याण करना है,
वह प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले शरीरके लिये अशुद्ध चीजोंका सेवन
करके पाप क्यों करेगा ?
[*] शतक्रतु इन्द्र (सौ यज्ञ करके इन्द्र बननेवाला) भी दुःखी होता
है,
उसपर भी आफत आती है । उसके मनमें भी ईर्ष्या,
भय, अशान्ति आदि होते हैं कि मेरा पद कोई छीन न ले आदि । यह वैदिकी
हिंसाके पापका ही फल है । |