।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  आषाढ़ कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें आहारीका वर्णन


आयुर्वेदमें शरीरकी ही मुख्यता रहती है । अतः किसी भी तरहसे शरीर स्वस्थ, नीरोग रहे‒इसके लिये आयुर्वेदमें जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयोंके तथा मांस, मदिरा, आसव आदिके सेवनका विधान आता है । धर्मशास्त्रमें सुखभोगकी मुख्यता रहती है; अतः उसमें भी स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये किये जानेवाले अश्वमेध आदि यज्ञोंमें पशुबलिका, हिंसाका वर्णन आता है । वैदिक मन्त्रोंके द्वारा विधि-विधानसे की हुई (वैदिकी) हिंसाको हिंसा नहीं माना जाता । हिंसा न माननेपर भी हिंसाका पाप तो लगता ही है ।[*] इसके सिवा मांसका सेवन करते-करते मनुष्यका स्वभाव बिगड़ जाता है । फिर उसमें परलोककी प्रधानता न रहकर स्थूलशरीरकी प्रधानता हो जाती है और वह शास्रीय विधानके बिना भी मांसका सेवन करने लग जाता है ।

आयुर्वेदमें हिंसाकी सीमा नहीं होती; क्योंकि उसमें स्थूलशरीरको ठीक रखनेकी मुख्यता है । अतः उसमें परलोकके बिगड़नेकी परवाह नहीं होती । धर्मशास्त्रमें सीमित हिंसा होती है । जिससे परलोक बिगड़ जाय, ऐसी हिंसा नहीं होती । परन्तु धर्मशास्त्रमें मनुष्यके कल्याण (मोक्ष)-की परवाह नहीं होती । तात्पर्य है कि आयुर्वेद और धर्मशास्त्र‒दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं । जबतक अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व रहता है, तबतक मनुष्य पापसे हिंसासे बच ही नहीं सकता । वह अपनी भी हिंसा (पतन) करता है और दूसरोंकी भी । परन्तु जिसमें सकामभाव नहीं है, उसके द्वारा हिंसा नहीं होती । अगर उसके द्वारा हिंसा हो भी जाय तो भी उसको पाप नहीं लगता; क्योंकि पाप कामना (राग)-में ही है, क्रियामें नहीं ।

लोगोंकी प्रायः ऐसी धारणा बन गयी है कि औषधरूपमें मांस आदि अशुद्ध चीज खाना बुरा नहीं है । परन्तु ऐसा माननेवाले वे ही लोग है, जिनका केवल शरीरको ठीक रखनेका, सुख-आरामका ही लक्ष्य है; जो धर्मकी अथवा अपने कल्याणकी परवाह नहीं करते । औषधरूपमें भी अभक्ष्य-भक्षण करनेसे हिंसा और अपवित्रता तो आ ही जाती है । अतः औषधरूपमें भी अभक्ष्य-भक्षण नहीं करना चाहिये ।

प्रश्न‒अगर शरीर रहेगा तो मनुष्य साधन-भजन करेगा; अतः अभक्ष्य-भक्षण करनेसे अगर शरीर बच जाय तो क्या हानि है ?

उत्तर‒अभक्ष्य-भक्षण करनेसे शरीर बच जाय, मौत टल जाय‒यह कोई नियम नहीं है । अगर आयु शेष होगी तो शरीर बच जायगा और आयु शेष नहीं होगी तो शरीर नहीं बचेगा; क्योंकि शरीरका बचना अथवा न बचना प्रारब्धके अधीन है, वर्तमानके कर्मोंके अधीन नहीं । अभक्ष्य-भक्षणसे शरीर बच नहीं सकता केवल शरीरकी किञ्चित् पुष्टि हो सकती है, पर अभक्ष्य-भक्षणसे जो पाप होगा, उसका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा ।

मनुष्य साधन-भजनका तो केवल बहाना बनाता है, वास्तवमें तो शरीरमें राग-आसक्ति रहनेसे ही वह अशुद्ध दवाइयोंका सेवन करता है । जिसका शरीरमें राग नहीं है, जिसका उद्देश्य अपना कल्याण करना है, वह प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले शरीरके लिये अशुद्ध चीजोंका सेवन करके पाप क्यों करेगा ?



[*] शतक्रतु इन्द्र (सौ यज्ञ करके इन्द्र बननेवाला) भी दुःखी होता है, उसपर भी आफत आती है । उसके मनमें भी ईर्ष्या, भय, अशान्ति आदि होते हैं कि मेरा पद कोई छीन न ले आदि । यह वैदिकी हिंसाके पापका ही फल है ।