सात्त्विक मनुष्यमें विवेक जाग्रत् रहता है;
अतः वह पहले भोजनके परिणामको देखता है अर्थात् उसकी दृष्टि पहले
परिणामकी तरफ ही जाती है । इसलिये सात्त्विक आहारमें पहले फल (परिणाम)-का और पीछे भोजनके
पदार्थोंका वर्णन हुआ है (१७ । ८) । राजस मनुष्यमें राग रहता है,
भोज्य पदार्थोंकी आसक्ति रहती है;
अतः उसकी दृष्टि पहले भोजनके पदार्थोंकी तरफ ही जाती है । इसलिये
राजस आहारमें पहले भोज्य पदार्थोंका और पीछे फल (परिणाम)-का वर्णन हुआ है (१७ । ९)
। तामस मनुष्यमें मोह‒मूढ़ता रहती है; अतः वह मोहपूर्वक ही भोजन करता है । इसलिये तामस आहारमें केवल
तामस पदार्थोंका ही वर्णन आया है; फल (परिणाम)-का वर्णन आया ही नहीं (१७ । १०) । किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदायका मनुष्य क्यों न हो, अगर वह पारमार्थिक मार्गमें लगेगा, साधन करेगा
तो उसकी रुचि (प्रियता) स्वाभाविक ही सात्त्विक आहारमें होगी,
राजस-तामस आहारमें नहीं । सात्त्विक आहार करनेसे वृत्तियाँ सात्त्विक
बनती है और सात्त्विक वृत्तियोंसे सात्त्विक आहारमें प्रियता होती है । कर्मयोगीमें निष्कामभावकी, ज्ञानयोगीमें विवेकपूर्वक त्यागकी
और भक्तियोगीमें भगवद्भावकी मुख्यता रहती है । उनके सामने भोजनके पदार्थ आनेपर भी उन
पदार्थोंमें उनका खिंचाव, प्रियता पैदा नहीं होती । जैसे, कर्मयोगीके सामने भोजन आ जाय तो उसमें सुख एवं भोग-बुद्धि न
रहनेसे वह रागपूर्वक भोजन नहीं करता; अतः भोजनमें सात्त्विकताकी कमी रहनेपर भी निष्कामभाव होनेसे
भोजनमें साङ्गोपाङ्ग सात्त्विकता आ जाती है । ज्ञानयोगी सम्पूर्ण पदार्थोंसे विवेकपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद
करता है;
अतः भोज्य पदार्थोंसे सम्बन्ध न रहनेके कारण वह जो भोजन करता
है,
वह सात्त्विक हो जाता है । भक्तियोगी भोज्य पदार्थोंको पहले
भगवान्के अर्पण करके फिर उनको प्रसादरूपसे ग्रहण करता है,
अतः वह भोजन सात्त्विक हो जाता है । ज्ञातव्य प्रश्न‒आयुर्वेद
और धर्मशास्त्रमें विरोध क्यों है ? जैसे, आयुर्वेद
अरिष्ट, आसव, मदिरा, मांस आदिका विधान
करता हैं और धर्मशास्त्र इनका निषेध करता है; ऐसा
क्यों ?
उत्तर‒शास्त्र चार प्रकारके हैं‒नीतिशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, धर्मशास्त्र और मोक्षशास्त्र । ‘नीतिशास्त्र’
में धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, वैभव आदिको प्राप्त करनेका एवं रखनेका उद्देश्य ही मुख्य है
। नीतिशास्त्रमें कूटनीतिका वर्णन भी आता है, जिसमें दूसरोंके साथ छल-कपट, विश्वासघात आदि करनेकी बात भी आती
है,
जो कि ग्राह्य नहीं है । ‘आयुर्वेद-शास्त्र’
में शरीरकी ही मुख्यता है, अतः उसमें वही बात आती है, जिससे शरीर ठीक रहे । वह बात कहीं-कहीं धर्मशास्त्रसे विरुद्ध
भी पड़ती है । ‘धर्मशास्त्र’
में सुखभोगकी मुख्यता है; अतः उसमें वही बात आती है, जिससे यहाँ भी सुख हो और परलोकमें भी (स्वर्गादि लोकोंमें) सुख
हो । ‘मोक्षशास्त्र’
में जीवके कल्याणकी मुख्यता है;
अतः उसमें वही बात आती है, जिससे जीवका कल्याण (उद्धार) हो जाय । मोक्षशास्त्रमें धर्मविरुद्ध
बात नहीं आती । उसमें सकामभावका भी वर्णन आता है, पर उसकी उसमें महिमा नहीं कही गयी है,
प्रत्युत निन्दा ही की गयी है । कारण कि साधकमें जबतक सकामभाव
रहता है,
तबतक परमात्मप्राप्तिमें देरी लगती ही है । इहलोक और परलोकके
सुखकी कामनाका त्याग करनेपर धर्मशास्त्र भी मोक्षमें सहायक हो जाता है । |