।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें आहारीका वर्णन



जो लोग ईर्ष्याभय और क्रोधसे युक्त हैं तथा लोभी हैंऔर रोग तथा दीनतासे पीड़ित और द्वेषयुक्त हैंवे जिस भोजनको करते हैंवह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात् उससे अजीर्ण हो जाता है । इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह भोजन करते समय मनको शान्त तथा प्रसन्न रखे । मनमें कामक्रोधलोभमोह आदि दोषोंकी वृत्तियोंको न आने दे । यदि कभी आ जायँ तो उस समय भोजन न करेक्योंकि वृत्तियोंका असर भोजनपर पड़ता है और उसीके अनुसार अन्तःकरण बनता है । ऐसा भी सुननेमें आया है कि फौजी लोग जब गायको दुहते हैंतब दुहनेसे पहले बछड़ा छोड़ते हैं और उस बछड़ेके पीछे कुत्ता छोड़ते हैं । अपने बछड़ेके पीछे कुत्तेको देखकर जब गाय गुस्सेमें आ जाती हैतब बछड़ेको लाकर बाँध देते हैं और फिर गायको दुहते हैं । वह दूध फौजियोंको पिलाते हैंजिससे वे लोग खूँखार बनते हैं । 

ऐसे ही दूधका भी असर प्राणियोंपर पड़ता है । एक बार किसीने परीक्षाके लिये कुछ घोड़ोंको भैंसका दूध और कुछ घोड़ोंको गायका दूध पिलाकर उन्हें तैयार किया । एक दिन सभी घोड़े कहीं जा रहे थे । रास्तेमें नदीका जल था । भैंसका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलमें बैठ गये और गायका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलको पार कर गये । इसी प्रकार बैल और भैंसेका परस्पर युद्ध कराया जाय तो भैंसा बैलको मार देगापरन्तु यदि दोनोंको गाड़ीमें जोता जाय तो भैंसा धूपमें जीभ निकाल देगाजबकि बैल धूपमें भी चलता रहेगा । कारण कि भैंसके दूधमें सात्त्विक बल नहीं होताजबकि गायके दूधमें सात्त्विक बल होता है ।

 जैसे प्राणियोंकी वृत्तियोंका पदार्थोंपर असर पड़ता हैऐसे ही प्राणियोंकी दृष्टिका भी असर पड़ता है । बुरे व्यक्तिकी अथवा भूखे कुत्तेकी दृष्टि भोजनपर पड़ जाती है तो वह भोजन अपवित्र हो जाता है । अब वह भोजन पवित्र कैसे हो भोजनपर उसकी दृष्टि पड़ जाय तो उसे देखकर मनमें प्रसन्न हो जाना चाहिये कि भगवान् पधारे हैं ! अतः उसको सबसे पहले थोड़ा अन्न देकर भोजन करा दे । उसके देनेके बाद बचे हुए शुद्ध अन्नको स्वयं ग्रहण करे तो दृष्टिदोष मिट जानेसे वह अन्न पवित्र हो जाता है । दूसरी बातलोग बछड़ेको पेटभर दूध न पिलाकर सारा दूध स्वयं दुह लेते हैं । वह दूध पवित्र नहीं होताक्योंकि उसमें बछड़ेका हक आ जाता है । बछड़ेको पेटभर दूध पिला दे और इसके बाद जो दूध निकलेवह चाहे पावभर ही क्यों न होबहुत पवित्र होता है ।

भोजन करनेवाले और करानेवालेके भावका भी भोजनपर असर पड़ता हैजैसे‒(१) भोजन करनेवालेकी अपेक्षा भोजन करानेवालेकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी,वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जेका माना जायगा । (२) भोजन करानेवाला तो बड़ी प्रसन्नतासे भोजन कराता हैपरन्तु भोजन करनेवाला ‘मुफ्तमें भोजन मिल गयाअपने इतने पैसे बच गयेइससे मेरेमें बल आ जायगा’ आदि स्वार्थका भाव रख लेता है तो वह भोजन मध्यम दर्जेका हो जाता है और (३) भोजन करानेवालेका यह भाव है कि ‘यह घरपर आ गया तो खर्चा करना पड़ेगाभोजन बनाना पड़ेगाभोजन कराना ही पड़ेगा’ आदि और भोजन करनेवालेमें भी स्वार्थभाव है तो वह भोजन निकृष्ट दर्जेका हो जायगा ।

इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५१२ । ४) । तात्पर्य यह है कि जिसका सम्पूर्ण प्राणियोंमें हितका भाव जितना अधिक होगाउसके पदार्थक्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!