।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     श्रावण शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें श्रद्धा



(३) ग्रन्थों और शास्त्रीय शुभकर्मोंमें श्रद्धाजो मनुष्य दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक इस गीता-ग्रन्थको सुन भी लेगा, वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकर्म करनेवालोंके ऊँचे लोकोंको प्राप्त हो जायगा (१८ ।७१) । कर्तव्य और अकर्तव्यके विषयमें शास्त्र ही प्रमाण है; अतः शास्त्रको सामने रखकर ही कर्म करने चाहिये (१६ । २४) । जो शास्त्रविधिको अर्थात् कौन-सा कार्य किस विधिसे करना चाहियेइस बातको नहीं जानते, पर शास्त्रीय शुभकर्मोंमें जिनकी श्रद्धा है और जो श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन भी करते हैं (१७ । १), वे सात्त्विक (दैवी सम्पत्तिवाले) मनुष्य होते हैं‒‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’ (१७ । ४)

(४) सात्त्विक तपमें श्रद्धा‒परम श्रद्धासे युक्त फलेच्छारहित मनुष्यों द्वारा शरीर, वाणी और मनसे जो तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं (१७ । १७) ।

‒यह सब दैवीश्रद्धाका विभाग है ।

आसुरी श्रद्धा

(१) देवताओंमें और सकाम अनुष्ठानोंमें श्रद्धा‒जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ (७ । २१) । जो भी मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी वास्तवमें करते तो हैं मेरा ही पूजन, पर करते है अविधिपूर्वक (९ । २३) ।

(२) यक्ष-राक्षसोंमें और भूत-प्रेतादिमें श्रद्धा‒राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसोंका पूजन करते हैं और तामस मनुष्य भूत-प्रेतादिका पूजन करते हैं‒‘यक्षरक्षांसि राजसाः’, ‘प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः’ (१७ । ४) ।

‒यह सब आसुरीश्रद्धाका विभाग है

श्रद्धाके साथ जबतक दोषदृष्टि रहती है, तबतक श्रद्धा पूर्णतया फलीभूत नहीं होती । अतः भगवान्‌ने श्रद्धाके साथ अनसूयन्तः और अनसूयः पद भी दिये हैं‒श्रद्धावन्तः’अनसूयन्तः’ (३ । ३१) और श्रद्धावान् अनसूयः’ (१८ । ७१) । तात्पर्य है कि श्रद्धा तो हो, पर दोषदृष्टिरहित हो ।

गीतामें दैवी श्रद्धाका प्रयोग साधकोंके लिये ही आता है, सिद्धोंके लिये नहीं । कारण कि साधकोंको सिद्धि प्राप्त करनी है;, अतः उनके लिये दैवी श्रद्धाकी जरूरत है । परन्तु सिद्ध तो सिद्धि प्राप्त किये रहते हैं अर्थात् उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात् अनुभव हो गया होता है; अतः उनके लिये दैवी श्रद्धाकी जरूरत नहीं है ।

गीताने दैवी श्रद्धाको इतनी मुख्यता दी हैं कि बिना श्रद्धाके यज्ञ, दान, तप आदि शुभकर्म किये जायँ तो वे सब असत् हो जाते हैं (१७ ।२८) ।

निष्कामभावसे भगवान्‌ आदिमें श्रद्धा करनेसे मुक्ति हो जाती है, मनुष्य संसार-बन्धनसे छूट जाता है और सकामभावसे देवता आदिमें श्रद्धा करनेसे मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है । निष्कामभावसे श्रद्धापूर्वक देवता आदिका पूजन करना दोषी नहीं है, बन्धन करनेवाला नहीं है, प्रत्युत कल्याण करनेवाला है । परन्तु भूत-प्रेतादिमें श्रद्धा करनेसे तो अधोगति ही होती है (९ । २५; १४ । १८); क्योंकि भूत-प्रेतोंकी उपासनामें निष्कामभाव हो ही नहीं सकता । भूत-प्रेतोंको अपना इष्ट मानकर उनकी उपासना करनेसे पतन होता है । हाँ, अगर उनके उद्धारके लिये, उनकी तृप्तिके लिये निष्कामभावसे जल दिया जाय, गया-श्राद्ध आदि किया जाय तो वह दोषी नहीं है; क्योंकि इसमें केवल उनका उद्धार करनेका भाव है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !