(३) ग्रन्थों और शास्त्रीय शुभकर्मोंमें श्रद्धा‒जो मनुष्य दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक इस गीता-ग्रन्थको सुन भी लेगा, वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकर्म
करनेवालोंके ऊँचे लोकोंको प्राप्त हो जायगा (१८ ।७१) । कर्तव्य और अकर्तव्यके विषयमें
शास्त्र ही प्रमाण है; अतः शास्त्रको सामने रखकर ही कर्म करने
चाहिये (१६ । २४) । जो शास्त्रविधिको अर्थात् कौन-सा कार्य किस विधिसे करना चाहिये‒इस बातको नहीं जानते, पर शास्त्रीय शुभकर्मोंमें जिनकी
श्रद्धा है और जो श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन भी करते हैं (१७ । १), वे सात्त्विक (दैवी सम्पत्तिवाले) मनुष्य होते हैं‒‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’ (१७ । ४) (४) सात्त्विक तपमें श्रद्धा‒परम श्रद्धासे युक्त फलेच्छारहित मनुष्यों द्वारा शरीर,
वाणी और मनसे जो तप किया जाता है,
उसको सात्त्विक कहते हैं (१७ । १७) । ‒यह सब ‘दैवी’ श्रद्धाका विभाग है । आसुरी श्रद्धा (१) देवताओंमें और सकाम अनुष्ठानोंमें श्रद्धा‒जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करना चाहता
है,
उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ (७
। २१) । जो भी मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं,
वे भी वास्तवमें करते तो हैं मेरा ही पूजन,
पर करते है अविधिपूर्वक (९ । २३) । (२) यक्ष-राक्षसोंमें और भूत-प्रेतादिमें श्रद्धा‒राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसोंका पूजन करते हैं और तामस मनुष्य भूत-प्रेतादिका
पूजन करते हैं‒‘यक्षरक्षांसि राजसाः’, ‘प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये
यजन्ते तामसा जनाः’ (१७ । ४) । ‒यह सब ‘आसुरी’ श्रद्धाका विभाग है । श्रद्धाके साथ जबतक दोषदृष्टि रहती है, तबतक
श्रद्धा पूर्णतया फलीभूत नहीं होती । अतः भगवान्ने श्रद्धाके साथ ‘अनसूयन्तः’ और ‘अनसूयः’
पद भी दिये हैं‒‘श्रद्धावन्तः’
‘अनसूयन्तः’ (३ ।
३१) और ‘श्रद्धावान्
अनसूयः’ (१८ ।
७१) । तात्पर्य है कि श्रद्धा
तो हो,
पर दोषदृष्टिरहित हो । गीतामें दैवी श्रद्धाका प्रयोग साधकोंके लिये ही आता है,
सिद्धोंके लिये नहीं । कारण कि साधकोंको सिद्धि प्राप्त करनी
है;,
अतः उनके लिये दैवी श्रद्धाकी जरूरत है । परन्तु सिद्ध तो सिद्धि
प्राप्त किये रहते हैं अर्थात् उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात् अनुभव हो गया होता
है;
अतः उनके लिये दैवी श्रद्धाकी जरूरत नहीं है । गीताने दैवी श्रद्धाको इतनी मुख्यता दी हैं कि बिना श्रद्धाके
यज्ञ,
दान, तप आदि शुभकर्म किये जायँ तो वे सब असत् हो जाते हैं (१७ ।२८)
। निष्कामभावसे भगवान् आदिमें श्रद्धा करनेसे मुक्ति हो जाती
है,
मनुष्य संसार-बन्धनसे छूट जाता है और सकामभावसे देवता आदिमें
श्रद्धा करनेसे मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है । निष्कामभावसे
श्रद्धापूर्वक देवता आदिका पूजन करना दोषी नहीं है, बन्धन
करनेवाला नहीं है, प्रत्युत कल्याण करनेवाला है । परन्तु भूत-प्रेतादिमें श्रद्धा करनेसे तो अधोगति ही होती है
(९ । २५;
१४ । १८); क्योंकि भूत-प्रेतोंकी उपासनामें निष्कामभाव हो ही
नहीं सकता । भूत-प्रेतोंको अपना इष्ट मानकर उनकी उपासना करनेसे
पतन होता है । हाँ, अगर उनके उद्धारके लिये, उनकी तृप्तिके लिये निष्कामभावसे जल दिया जाय,
गया-श्राद्ध आदि किया जाय तो वह दोषी नहीं है;
क्योंकि इसमें केवल उनका उद्धार करनेका भाव है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण !
नारायण ! |