।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   श्रावण शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें प्राणिमात्रके प्रति हितका भाव



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जगति योऽखिलजीवहिते रतो व्रजति स सुखदुःखविनाशताम् ।

निजहितं च य इच्छति केवलं झटिति नश्यति नो अविवेकता ॥

जीव अनादिकालसे अपने व्यक्तिगत सुख और हितमें तत्पर रहता आया है । अतः मेरेको सुख मिले, मेरा आदर हो, मेरी मान-बड़ाई हो, मेरे नामकी महिमा हो, मेरी मनचाही हो, मेरा हित हो, मेरा कल्याण हो, मेरी मुक्ति हो‒इस तरह उसका संसारको अपनी तरफ ही खींचनेका स्वभाव पड़ा हुआ है । इस स्वभावके कारण उसमें कामना, ममता, आसक्ति आदिकी वृद्धि एवं दृढ़ता होती है, जब कि कल्याण कामना, ममता आदिसे रहित होनेसे होता है (२ । ७१) । अतः संसारको अपनी तरफ खींचनेके स्वभावको मिटानेके लिये मनुष्यकी सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रति, प्रीति होनी बहुत आवश्यक है अर्थात् प्राणिमात्रको सुख मिले, कोई दुःखी न रहे, सबका आदर-सत्कार हो, सबकी मान-बड़ाई हो, सबका कल्याण हो, सबको परमात्माकी प्राप्ति हो‒ऐसा भाव होना बहुत आवश्यक है । ऐसा सर्वहितकारी भाव होनेसे संसारको अपनी तरफ खींचनेका भाव मिट जाता है और अपने पास धन-सम्पत्ति, वैभव, स्थूल-सूक्ष्म-कारणशरीर आदि जो सामग्री है, जो कि संसारसे ही मिली हुई और संसारसे अभिन्न है, उसको प्राणिमात्रके हितमें लगानेका भाव जाग्रत् हो जाता है । फिर प्राणियोंकी सेवा करनेमें, उनका आदर-सत्कार करनेमें, उनको सुख-आराम पहुँचानेमें, उनका हित करनेमें उस सामग्रीका स्वतः सद्‌व्यय होने लग जाता है, जिससे नाशवान्‌की कामना, ममता, आसक्ति आदि छूटती जाती है तथा अपनी परिच्छिन्नताका भाव मिटता जाता है । सर्वथा परिच्छिन्नता मिटते ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती हैते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (१२ । ४)

जैसे स्वयं (जीवात्मा) परमात्मासे अभिन्न है, ऐसे ही शरीर आदि सामग्री संसारसे अभिन्न है । परन्तु जबतक सबके हितकी भावना दृढ़ नहीं होती, तबतक अपनी कहलानेवाली सामग्री संसारकी नहीं दीखती, जिससे अपने सुख-आरामकी कामना बढ़ती है, दृढ़ होती है । जबतक कामना, ममता आदि रहती है, तबतक जड़ताके साथ तादात्म्य रहता है, जो जन्म-मरणका खास कारण है (१३ । २१) । परन्तु सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रति होनेसे यह तादात्म्य सहज ही टूट जाता है; क्योंकि प्राणिमात्रके हितमें रति होनेसे सांसारिक पदार्थ आदिका प्रवाह प्राणियोंके हितकी तरफ हो जाता है, अपनी तरफ नहीं रहता ।

भगवान्‌ने गीतामें दो बार सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५; १२ । ४) कहा है । पाँचवें अध्यायके पचीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने इन पदोंसे कहा कि सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रति होनेसे साधक निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं; और बारहवें अध्यायके चौथे श्‍लोकमें इन पदोंसे कहा कि सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रति होनेसे साधक मेरेको (सगुणको) प्राप्त हो जाते हैं । इसका तात्पर्य है कि दूसरोंके हितमें प्रीति होनेपर जड़ताका, अपने सुख-आरामका त्याग सुगमतापूर्वक हो जाता है । जड़ताका त्याग होनेपर साधक निर्गुणकी प्राप्ति चाहे तो निर्गुणकी प्राप्ति हो जायगी और सगुणकी प्राप्ति चाहे तो सगुणकी प्राप्ति हो जायगी अर्थात् प्रभुके साथ जो स्वाभाविक प्रेम है, वह प्रकट हो जायगा ।

सर्वभूतहिते रताः’ पद दोनों ही बार ज्ञानयोगके प्रकरणमें देनेका तात्पर्य यह है कि ज्ञानयोगके साधकमें अहं ब्रह्मास्मि की उपासना मुख्य रहती है । जो अहम् अनादिकालसे शरीरके सम्बन्धसे चला आ रहा है, उस अहम्‌का त्याग करनेके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रति होनी बहुत जरूरी है । प्राणियोंके हितमें रति होनेसे अहम् सुगमतापूर्वक छूट जाता है । अहम्‌के छूटनेसे अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है । फिर बन्धनका कोई कारण नहीं रहता ।

प्राणिमात्रके हितमें रतिका यह माप-तौल नहीं है कि साधक प्राणिमात्रके लिये कितना कार्य करता है, उनको कितनी वस्तुएँ देता है ? क्योंकि क्रिया और पदार्थ सीमित होते हैं । क्रियाओंका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा पदार्थोका भी संयोग और वियोग होता है । परन्तु सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव असीम होता है । असीम भावसे ही असीम-तत्त्व (परमात्मा)-की प्राप्ति होती है ।