।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें प्राणिमात्रके प्रति हितका भाव



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साधक जो कुछ भी साधन-भजन करता है, उससे भी लोगोंका स्वाभाविक हित होता है । अगर उसमें मेरा कल्याण हो जायऐसा व्यक्तिगत हितका भाव रहता है, तो भी उसके द्वारा लोगोंका हित होता है । भगवत्प्राप्त महापुरुषमें अपना कोई व्यक्तिगत हितका भाव नहीं रहता; अतः उसके द्वारा जो कुछ होता है, वह स्वतः लोगोंके हितके लिये ही होता है । उसके दर्शनसे, शरीरका स्पर्श करनेवाली वायुसे, संगसे, वचनोंसे दूसरे लोगोंपर असर पड़ता है, जिससे उन लोगोंमें साधन-भजन करनेकी रुचि जाग्रत् होती है और वे भी भगवान्‌की तरफ चल पड़ते हैं ।

जैसे बीड़ी-सिगरेट पीनेवालोंके द्वारा स्वतः ही बीड़ी-सिगरेटका प्रचार होता है, ऐसे ही साधकके द्वारा भी स्वतः साधन-भजनका प्रचार होता है । ऐसे सच्‍चे हृदयसे साधन करनेवाले साधकोंका समुदाय जहाँ रहता है, उस स्थानमें विलक्षणता आ जाती है । जैसे भोगियोंके भोग और संग्रहका लोगोंपर स्वतः असर पड़ता है, ऐसे ही साधकोंके त्याग और साधन-भजनका लोगोंपर स्वतः असर पड़ता है । उनके साधन-भजनका असर केवल मनुष्योंपर ही नहीं, प्रत्युत पशु-पक्षी आदि जीवोंपर तथा दीवार आदि जड़ चीजोंपर भी पड़ता है ।

जो सिद्ध महापुरुष केवल अपनेमें ही रहते है, लोक-व्यवहारमें आते ही नहीं, उनके द्वारा भी अदृश्यरूपसे स्वतः चिन्मय-तत्त्वका, जड़ताके त्यागका प्रचार होता है और साधकोंको जड़ताका त्याग करके चिन्मय-तत्त्वमें स्थित होनेमें अदृश्यरूपसे सहायता मिलती है । जैसे बर्फसे स्वतः ठण्डक निकलती है, सूर्यसे स्वतः प्रकाश निकलता है, ऐसे ही उन महापुरुषोंसे लोगोका स्वतः हित होता है, लोगोंको शान्ति मिलती है । अतः संसारमें जितनी शान्ति है, सुख है, आनन्द है, वह सब सिद्ध महापुरुषोंकी कृपासे ही है ।

दूसरोंके हितमें प्रीति रखना और अपना कल्याण करना‒ये दोनों अलग-अलग दीखते हुए भी वास्तवमें एक ही है । कारण कि जिनकी प्राणियोंका हित करनेकी भावना है, वे जड़ताका त्याग करके कल्याणको प्राप्त होते है; और जो अपना कल्याण करनेमें लगे है, उनके द्वारा जड़ताका त्याग स्वतः होता है, जिससे उनके द्वारा स्वतः प्राणियोंका हित होता है ।

लोभी व्यक्तिके द्वारा स्वतः ही लोभका और उदार व्यक्तिके द्वारा स्वतः ही उदारताका प्रचार होता है । जिनके हदयमें रुपयोंका, मान-बड़ाईका महत्त्व है, उनके द्वारा स्वतः रुपयों आदिके महत्त्वका प्रचार होता है; और जिनके हदयमें रुपयों आदिका महत्त्व नहीं है, उनके द्वारा स्वतः त्यागका प्रचार होता है । जो भगवान्‌के गुण, लीला, प्रभाव, महत्त्व आदिका कथन करते हैं, दूसरोंको सुनाते हैं, वे संसारको बहुत देनेवाले (महादानी) हैं‒भूरिदा जनाः’ श्रीमद्भा १० । ३१ । ९) । जो रुपये-पैसे, अन्न-जल आदि देनेवाले हैं, वे भूरिदा (बहुत देनेवाले) नहीं हैं, प्रत्युत अल्पदा (थोड़ा देनेवाले) हैं । कारण कि प्राकृत चीजें केवल प्राणियोंके शरीरतक ही पहुँचती हैं; परन्तु जो प्रेमपूर्वक भगवान्‌की कथा करनेवाले हैं, भगवद्‌गुणोंका गान करनेवाले हैं, वे लोगोंको जड़तासे ऊपर उठाकर चिन्मय-तत्त्वकी तरफ ले जाते हैं ।

सम्पूर्ण संसार मिलकर एक प्राणीको भी सुखी नहीं कर सकता, फिर एक मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंको सुखी कैसे कर सकता है ? अतः सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका तात्पर्य यह है कि सबके हितमें रुचि हो, प्रीति हो; सबको सुख पहुँचानेका भाव हो । सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें प्रीति होनेसे अपनी सुखबुद्धिका, भोग और संग्रहबुद्धिका, स्वार्थबुद्धिका स्वाभाविक ही त्याग हो जाता है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है; क्योंकि अपनी सुखबुद्धि आदि ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें बाधक है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !