Listen साधक जो कुछ भी साधन-भजन करता है,
उससे भी लोगोंका स्वाभाविक हित होता है । अगर उसमें ‘मेरा कल्याण हो जाय’‒ऐसा व्यक्तिगत हितका भाव रहता है,
तो भी उसके द्वारा लोगोंका हित होता है । भगवत्प्राप्त महापुरुषमें अपना कोई व्यक्तिगत हितका भाव नहीं रहता; अतः
उसके द्वारा जो कुछ होता है, वह स्वतः लोगोंके हितके लिये ही होता है । उसके दर्शनसे, शरीरका
स्पर्श करनेवाली वायुसे, संगसे, वचनोंसे दूसरे लोगोंपर असर पड़ता है, जिससे
उन लोगोंमें साधन-भजन करनेकी रुचि जाग्रत् होती है और वे भी भगवान्की तरफ चल पड़ते
हैं । जैसे बीड़ी-सिगरेट पीनेवालोंके द्वारा स्वतः ही बीड़ी-सिगरेटका
प्रचार होता है, ऐसे ही साधकके द्वारा भी स्वतः साधन-भजनका प्रचार होता है । ऐसे सच्चे हृदयसे साधन करनेवाले साधकोंका समुदाय जहाँ रहता है, उस
स्थानमें विलक्षणता आ जाती है । जैसे भोगियोंके भोग और संग्रहका लोगोंपर स्वतः असर पड़ता है,
ऐसे ही साधकोंके त्याग और साधन-भजनका लोगोंपर स्वतः असर पड़ता
है । उनके साधन-भजनका असर केवल मनुष्योंपर ही नहीं, प्रत्युत पशु-पक्षी आदि जीवोंपर तथा दीवार आदि जड़ चीजोंपर भी
पड़ता है । जो सिद्ध महापुरुष केवल अपनेमें ही रहते है,
लोक-व्यवहारमें आते ही नहीं, उनके द्वारा भी अदृश्यरूपसे स्वतः चिन्मय-तत्त्वका,
जड़ताके त्यागका प्रचार होता है और साधकोंको जड़ताका त्याग करके
चिन्मय-तत्त्वमें स्थित होनेमें अदृश्यरूपसे सहायता मिलती है । जैसे बर्फसे स्वतः ठण्डक
निकलती है, सूर्यसे स्वतः प्रकाश निकलता है, ऐसे ही उन महापुरुषोंसे लोगोका स्वतः हित होता है,
लोगोंको शान्ति मिलती है । अतः संसारमें
जितनी शान्ति है, सुख है, आनन्द है, वह सब सिद्ध महापुरुषोंकी कृपासे ही है । दूसरोंके हितमें प्रीति रखना और अपना कल्याण करना‒ये
दोनों अलग-अलग दीखते हुए भी वास्तवमें एक ही है । कारण कि जिनकी प्राणियोंका हित करनेकी
भावना है, वे
जड़ताका त्याग करके कल्याणको प्राप्त होते है; और जो अपना कल्याण करनेमें लगे है, उनके
द्वारा जड़ताका त्याग स्वतः होता है, जिससे उनके द्वारा स्वतः प्राणियोंका हित होता है
। लोभी व्यक्तिके द्वारा स्वतः ही लोभका और उदार व्यक्तिके द्वारा
स्वतः ही उदारताका प्रचार होता है । जिनके हदयमें रुपयोंका,
मान-बड़ाईका महत्त्व है, उनके द्वारा स्वतः रुपयों आदिके महत्त्वका प्रचार होता है;
और जिनके हदयमें रुपयों आदिका महत्त्व नहीं है,
उनके द्वारा स्वतः त्यागका प्रचार होता है । जो भगवान्के गुण,
लीला, प्रभाव, महत्त्व आदिका कथन करते हैं, दूसरोंको सुनाते हैं, वे संसारको बहुत देनेवाले (महादानी) हैं‒‘भूरिदा
जनाः’ श्रीमद्भा॰ १० । ३१ । ९) । जो रुपये-पैसे, अन्न-जल आदि देनेवाले हैं, वे ‘भूरिदा’
(बहुत देनेवाले) नहीं हैं,
प्रत्युत ‘अल्पदा’
(थोड़ा देनेवाले) हैं । कारण
कि प्राकृत चीजें केवल प्राणियोंके शरीरतक ही पहुँचती हैं;
परन्तु जो प्रेमपूर्वक भगवान्की कथा करनेवाले हैं,
भगवद्गुणोंका गान करनेवाले हैं,
वे लोगोंको जड़तासे ऊपर उठाकर चिन्मय-तत्त्वकी तरफ ले जाते हैं
। सम्पूर्ण संसार मिलकर एक प्राणीको भी सुखी नहीं कर सकता,
फिर एक मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंको सुखी कैसे कर सकता है ?
अतः सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका तात्पर्य यह है कि सबके हितमें
रुचि हो,
प्रीति हो; सबको सुख पहुँचानेका भाव हो । सम्पूर्ण
प्राणियोंके हितमें प्रीति होनेसे अपनी सुखबुद्धिका, भोग
और संग्रहबुद्धिका, स्वार्थबुद्धिका स्वाभाविक ही त्याग हो जाता है और
परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है; क्योंकि अपनी सुखबुद्धि आदि ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें
बाधक है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |