।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    भाद्रपद कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें त्रिविध चक्षु



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चक्षुस्त्रिधाऽमन्यत कृष्णगीता दिव्यं तु चक्षुः प्रभुणा च दत्तम् ।

विवेकिनां  ज्ञानमयं  हि  चक्षुरज्ञानिनां चर्ममयं च  चक्षुः ॥

गीतामें भगवान्‌ने तीन चक्षुओंका अर्थात् देखनेकी शक्तियोंका वर्णन किया है‒स्वचक्षु (चर्मचक्षु), दिव्य चक्षु और ज्ञानचक्षु । प्राणियोंके अपने-अपने नेत्रोंमें जो देखनेकी शक्ति है, वह उनके स्वचक्षु’ हैं । इसके विषयमें भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा है कि तू इस स्वचक्षुसे मेरे दिव्य विश्वरूपको नहीं देख सकता‒न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा’ (११ ।८) । तात्पर्य यह हुआ कि इस स्वचक्षुसे सांसारिक वस्तुओंको ही देखा जा सकता है, भगवान्‌के विराट्‌रूपको और शरीर-संसारसे अपने अलगाव (भेद)-को नहीं देखा जा सकता ।

जिसमें भगवान्‌के अलौकिक, दिव्य, ऐश्वर्ययुक्त विराट्‌रूपको देखनेकी शक्ति होती है तथा जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्यकी बातोंको जाननेकी और प्राणियोंके मनमें उत्पन्‍न होनेवाले भावोंको देखनेकी सामर्थ्य होती है, उसे दिव्यचक्षु’ कहते हैं । गीतामें अर्जुनने भगवान्‌के किसी एक अंशमें स्थित विश्वरूपको देखनेकी इच्छा प्रकट की, तो भगवान्‌ने अपना विश्वरूप दिखाते हुए चार बारदेख ! देख ! देख ! देख’ कहा; पर अर्जुनको विश्वरूपके दर्शन नहीं हुए । तब भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा किभैया ! तुम स्वचक्षुसे मेरे इस रूपको नहीं देख सकते; अतः मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तुम मेरे विराट्‌रूपको देखोदिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्’ (११ । ८) । ऐसा कहकर भगवान्‌ने अर्जुनको दिव्यचक्षु दिये, जिससे अर्जुनने भगवान्‌के अलौकिक, दिव्य विश्वरूपके दर्शन किये, जो साधारण मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है । उसकी महिमा गाते हुए भगवान्‌ने कहा कि मैंने कृपा करके यह तेजोमय दिव्यरूप दिखाया है, इसे पहले तुम्हारे सिवाय किसीने भी नहीं देखा है (११ । ४७) । तात्पर्य यह है कि ऐसे विश्वरूपके दर्शन तो दिव्यचक्षुसे ही हो सकते हैं, चर्मचक्षु और ज्ञानचक्षुसे नहीं ।

स्वयं भगवान्‌ और भगवान्‌से अधिकार प्राप्त किये हुए भगवत्स्वरूप कारक महापुरुष ही कृपा करके किसी कृपापात्रको दिव्यचक्षु दे सकते हैं । दिव्यचक्षु देनेकी सामर्थ्य हरेक संत-महात्मामें नहीं होती । वेदव्यासजी महाराजने महाभारत-युद्धके आरम्भमें अपने कृपापात्र संजयको दिव्यचक्षु दिये थे, जिससे संजयने भी भगवान्‌के विश्वरूपको देख लिया (१८ । ७७) ।

जिससे नित्य-अनित्य, सत्-असत्, जड़-चेतनका ठीक तरहसे बोध हो जाता है और जिससे अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है, उसे ज्ञानचक्षु’ (विवेकदृष्टि) कहते हैं । गीतामें भगवान्‌ने दो जगह ज्ञानचक्षुका वर्णन किया है‒(१) जो ज्ञानचक्षुसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके भेदको ठीक देख लेते हैं तथा कार्य-कारणसहित सम्पूर्ण प्रकृतिसे अपनेको अलग अनुभव कर लेते हैं, वे परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं (१३ । ३४); और (२) जन्मते-मरते और भोगोंको भोगते समय भी यह जीवात्मा स्वरूपसे निर्लिप्त ही रहता है‒इस बातको रागपूर्वक विषयोंका सेवन करनेवाले मुढ़ मनुष्य नहीं जानते, प्रत्युत ज्ञानचक्षुवाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं (१५ । १०) । इस प्रकार जानना ज्ञानचक्षुसे ही होता है, स्वचक्षुसे नहीं ।

भगवान्‌ और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष ही ज्ञानचक्षु दे सकते हैं, सामान्य मनुष्य नहीं । कारण कि सामान्य मनुष्योंको खुदको ही ऐसा ज्ञानचक्षु प्राप्त नहीं है, फिर वे दूसरोंको कैसे दे सकते हैं ? शास्त्रोंका जानकार (पण्डित) भी सत्-असत्‌का विवेचन तो कर सकता है, पर किसीको ज्ञानचक्षु नहीं दे सकता; क्योंकि उसे खुदको ही अनुभव नहीं होता । इसका अर्थ यह नहीं है कि हरेक मनुष्य ऐसा ज्ञानचक्षु प्राप्त नहीं कर सकता, प्रत्युत इस ज्ञानचक्षुको प्राप्त करनेके मात्र मनुष्य अधिकारी हैं । इतना ही नहीं, पापी-से-पापी मनुष्य भी इसे प्राप्त करनेका अधिकारी है (४ । ३६) । कारण कि मनुष्यशरीर केवल अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है । अतः मनुष्य इस ज्ञानचक्षुको भक्ति करके भगवान्‌से प्राप्त कर सकता है (१० । ११) अथवा तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके अनुकूल बनकर प्राप्त कर सकता है (४ । ३४) अथवा तत्परतासे श्रद्धापूर्वक साधन करके भी प्राप्त कर सकता है (४ । ३९) । इस ज्ञानचक्षुके प्राप्त होनेपर मोह (अज्ञानान्धकार) सदाके लिये मिट जाता है (४ । ३५) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !