Listen ज्ञातव्य सांसारिक वस्तु आदिकी एक ‘आवश्यकता’ होती है और एक ‘इच्छा’ होती है । आवश्यकताकी तो पूर्ति होती है,
पर इच्छाकी कभी पूर्ति नहीं होती । जैसे,
भूख लगनेपर एक उदरपूर्तिकी इच्छा होती है और एक स्वादकी इच्छा
होती है । उदरपूर्तिकी इच्छा शरीरकी आवश्यकता (भूख) है, जो भोजन करके मिटायी जा सकती है;
परन्तु स्वादकी इच्छा भोजन करके नहीं मिटायी जा सकती । तात्पर्य
है कि शरीरकी आवश्यकता (भूख)-की पूर्ति तो की जा सकती है,
पर उसका विचारपूर्वक त्याग नहीं किया जा सकता । परन्तु स्वादकी
इच्छाकी पूर्ति नहीं की जा सकती, उसका तो त्याग ही किया जा सकता है । उदरपूर्तिकी इच्छा (भूख) एक ही होती है और उसकी पूर्तिका प्रबन्ध
भगवान्की तरफसे प्रारब्धके अनुसार है । परन्तु स्वादकी इच्छा अनेक (तरह-तरहकी) होती
है और उसकी पूर्तिका प्रबन्ध भगवान्की तरफसे प्रारब्धके अनुसार नहीं है । कारण कि
उदरपूर्तिकी इच्छा तो शरीरकी स्वाभाविक आवश्यकता है, पर स्वादकी इच्छा हमारी अपनी बनायी हुई है,
स्वाभाविक नहीं है; अतः इसका त्याग करनेकी जिम्मेवारी हमारेपर ही है । पारमार्थिक इच्छा स्वयंकी आवश्यकता है । वह इच्छा चाहे भगवद्दर्शनकी
हो,
चाहे भगवत्प्रेमकी हो, चाहे मुक्तिकी हो, पर वह सब आवश्यकता है । उसकी पूर्ति क्रिया,
पदार्थ, परिस्थिति, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके अधीन नहीं है अर्थात् क्रिया,
पदार्थ, आदिकी सहायतासे भगवत्प्रेम, मुक्ति आदिकी प्राप्ति नहीं होती
। कारण कि सत्की प्राप्ति असत्के द्वारा नहीं होती,
प्रत्युत असत्के त्यागसे होती है । वास्तवमें तो असत्की इच्छा रहनेसे ही सत्की इच्छा होती है
। अगर असत्की इच्छाका सर्वथा त्याग कर दें तो सत्की इच्छा स्वतः पूरी हो जायगी ।
कारण कि सत् सब जगह, सब समय, सब परिस्थिति आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है;
परन्तु असत्की इच्छा रखनेसे उसका भान नहीं होता ।
सांसारिक और पारमार्थिक‒दोनों ही (असत्-सत्की) इच्छाएँ वास्तवमें
संसारकी इच्छापर ही टिकी हुई हैं । अगर मनुष्य नाशवान् संसारको महत्त्व न दे,
उसका आश्रय न ले, उसकी इच्छा न करे, अपनेको उसके अधीन न माने, तो पारमार्थिक इच्छा स्वतः पूरी हो जायगी । कारण कि पारमार्थिक
(सत्की) इच्छा आवश्यकता है और आवश्यकताकी पूर्ति अवश्य होती है । शारीरिक आश्यकताकी
पूर्ति तो प्रारब्धके अधीन है; अतः उसकी पूर्ति हो भी और कभी न भी हो;
क्योंकि उसका विषय असत् है । परन्तु असत्की इच्छाका सर्वथा
त्याग करनेपर सत्की आवश्यकता स्वतः पूरी होती है; क्योंकि सत् पहलेसे ही विद्यमान है । सत्की आवश्यकता पूरी होनेपर
कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता । संसारका काम जितना ही कर लें,
पर करना बाकी ही रहेगा; संसारकी जानकारी कितनी ही प्राप्त कर लें,
पर जानना बाकी ही रहेगा; और संसारकी वस्तुएँ कितनी ही प्राप्त कर लें,
पर पाना बाकी ही रहेगा । तात्पर्य है कि सांसारिक करना,
जानना और पाना कभी पूरा होता ही नहीं । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |