।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें द्विविधा इच्छा



Listen



इच्छा तु द्विविधा  प्रोक्ता जगतः परमात्मनः ।

अपूर्तिर्जगदिच्छायाः   पूर्तिश्च   परमात्मनः ॥

गीतामें सत् और असत्‒इन दोका वर्णन आया है । ऐसे ही इच्छा भी दो प्रकारकी होती है । एक इच्छा तो सत्‌’ की प्राप्तिकी होती है और एक इच्छाअसत्’ (सांसारिक भोगों)-की प्राप्तिकी होती है । सत्‌की इच्छा भावरूप है अर्थात् सदा रहनेवाली है, कभी मिटनेवाली नहीं है एवं पूर्ण होनेवाली है और असत् की इच्छा अभावरूप है अर्थात् मिटनेवाली है, कभी पूर्ण होनेवाली नहीं है (२ । १६) । अतः सत्‌की इच्छाकी पूर्ति होती है और असत्‌की इच्छाकी निवृत्ति होती है, अभाव होता है ।

वास्तवमें देखा जाय तो यह जीव साक्षात्, परमात्मा (सत्)-का अंश है और इसने प्रकृतिके अंश (असत्)-को पकड़ा है, उसके साथ तादात्म्य किया है (१५ । ७) । इसी कारण इसमें दो इच्छाएँ उत्पन्‍न हो गयी हैं । यदि यह प्रकृतिके अंशको न पकड़े तो असत्‌की इच्छाकी निवृत्ति हो जायगी और सत्‌की इच्छाकी पूर्ति हो जायगी । कारण कि परमात्माका अंश होनेसे परमात्मप्राप्ति तो स्वतःसिद्ध है ही, केवल असत्‌को पकड़नेसे अपूर्तिका, अभावका अनुभव हो रहा था ।

कर्मयोगके प्रकरणमें इन्हीं दो इच्छाओंको व्यवसायात्मिका और अव्यवसायात्मिका बुद्धिके नामसे कहा गया है (२ । ४१) । परमात्मप्राप्तिकी इच्छाको व्यवसायात्मिका बुद्धि’ और भोगोंकी इच्छाको अव्यवसायात्मिका बुद्धि कहा गया है । व्यवसायात्मिका बुद्धि एक होती है; क्योंकि परमात्मतत्त्व एक है । मार्गभेदसे, पद्धतिभेदसे, रुचि और श्रद्धा-विश्वासके भेदसे इस परमात्मतत्त्वकी इच्छाको मुमुक्षा, प्रेमपिपासा, भगवद्दिदृक्षा आदि नामोंसे कह देते हैं । परन्तु अव्यवसायात्मिका बुद्धि अनेक होती है; क्योंकि सांसारिक भोग और पदार्थ अनेक तरहके हैं । सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छाओंका कभी अन्त नहीं आता; अतः उनकी कभी पूर्ति हो ही नहीं सकती उनका तो त्याग ही हो सकता है । इसलिये भगवान्‌ने गीतामें असत्‌की इच्छाके त्यागपर बहुत जोर दिया है (२ । ४७, ५५, ७१; ३ । ४३; ५ । ११-१२; ६ । २४; १६ । २१-२२ आदि) ।

एक आवश्यकता होती है और एक इच्छा होती है । आवश्यकता सत्‌की और इच्छा असत्‌की होती है । मनुष्योंमें केवल सत् (परमात्मा)-की ही इच्छा होनी चाहिये, जो आवश्यकता है । मनुष्यका जन्म असत्‌की इच्छा करनेके लिये हुआ ही नहीं । कारण कि असत् अपना नहीं है और कभी साथमें नहीं रहता; परन्तु सत्‌ अपना है और सदा ही साथमें रहता है, कभी अलग नहीं हो सकता ।