।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें द्विविध सत्ताका वर्णन



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शंका‒चरम (अन्तिम) वृत्ति तो अनुत्पन्‍न सत्ताका बोध होनेमें कारण बनती ही है; अतः उत्पन्‍न सत्ताके द्वारा ही अनुत्पन्‍न सत्ताका बोध हुआ ?

समाधान‒नहीं ! चरम वृत्तिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही अनुत्पन्‍न सत्ताका, शुद्ध स्वरूपका यथार्थ अनुभव होता है । उत्पन्‍न सत्तासे सम्बन्ध रहते हुए शुद्ध स्वरूपका बोध नहीं होता, प्रत्युत वृत्तिसहित तत्त्वका ही बोध होता है । वृत्तिके रहते हुए समाधि और व्युत्थान‒ये दो अवस्थाएँ होती हैं; परन्तु वास्तविक बोधमें ये दो अवस्थाएँ नहीं होतीं । वास्तविक बोध वृत्तिसे रहित होनेपर ही होता है; क्योंकि वृत्ति उत्पन्‍न और नष्ट होनेवाली है और स्वरूप उत्पन्‍न और नष्ट होनेवाला नहीं है । तात्पर्य है कि वृत्तिसे बोध नहीं होता, प्रत्युत वृत्तिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे ही बोध होता है ।

जो क्रमसे साधना करते है अर्थात् श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, समाधि, सबीज, निर्बीज‒ऐसे क्रमसे साधना करते हैं, उनके लिये ही वृत्ति कुछ समयके लिये उपयोगी हो सकती है, पर वास्तविक बोध तो वृत्तिरहित होनेसे ही होगा । ऐसे तो स्थूल शरीरसे, स्थूल पदार्थोंसे और स्थूल क्रियाओंसे भी संसारकी सेवा होती है, जिससे अन्तःकरण शुद्ध होता है । शुद्ध अन्तःकरण परमात्माके सम्मुख होनेमें सहायक होता है । शुद्ध अन्तःकरण करण-सापेक्ष साधनमें अर्थात् क्रमसे किये जानेवाले साधनमें ही सहायक होता है, पर उस साधनमें अन्तःकरणका जो महत्त्व है, वह तत्त्वप्राप्तिमें बाधक होता है । करण-निरपेक्ष साधनमें शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद किया जाता है । कारण कि स्वतःसिद्ध सत्ता करण-सापेक्ष नहीं है अर्थात् वह किसी करणकी अपेक्षा नहीं रखती । कुछ भी चिन्तन न करें, समाधिकी भी भावना न करें, चुप हो जायँ, तो इस चुपमें स्वरूप-स्थिति स्वतः होती है; क्योंकि वह तो पहलेसे ही है ।

साधक जबतक विकारी सत्ताका उपभोग करता है, उससे सुख लेता है, चाहे वह समाधि ही क्यों न हो, तबतक विकारी सत्ताकी महत्ता नहीं हटेगी; और महत्ता हटे बिना स्वतःसिद्ध अविकारी सत्ताकी प्राप्ति नहीं होगी । मनुष्यशरीर विकारी सत्ताकी महत्ताको हटानेमें ही हेतु होता है, अविकारी सत्ताको प्राप्त करनेमें नहीं । अतः विकारी सत्ता अविकारी सत्ताकी प्राप्तिका कारण नहीं हो सकती और अविकारी सत्ता विकारी सत्ताका कार्य नहीं हो सकती‒नासतः सज्जायेत’

मनुष्य केवल अविकारी सत्ता (परमात्मा)-को ही प्राप्त कर सकता है, विकारी सत्ता (सांसारिक पदार्थों)-को प्राप्त कर ही नहीं सकता; क्योंकि मनुष्य विकारी सत्ताको, सांसारिक पदार्थोंको कितना ही इकट्ठा कर ले, पर वे उसके साथ सदा रह ही नहीं सकते । चाहे तो मनुष्यके रहते हुए वे पदार्थ चले जायँगे, चाहे उनके रहते हुए मनुष्य चला जायगा, मर जायगा । मनुष्य सांसारिक पदार्थोंको अपने साथ रख नहीं सकता और स्वयं उनके साथ रह नहीं सकता, तो फिर उनकी प्राप्ति अप्राप्ति ही हुई ।

अविकारी सत्ताको विकारी सत्तासे आजतक कुछ भी नहीं मिला, मिलना सम्भव ही नहीं है । तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे स्वयंको कुछ मिला नहीं, मिलता नहीं, मिलेगा नहीं और मिल सकता भी नहीं । विकारी सत्ता तो अभावरूप है‒नासतो विद्यते भावः’ (२ । १६) । अतः विकारी सत्ता (संसार) प्राप्त दीखते हुए भी अप्राप्त ही है और अविकारी सत्ता (परमात्मा) अप्राप्त दीखते हुए भी प्राप्त ही है । अविकारी सत्ताको प्राप्त करनेमें मनुष्य समर्थ है और मनुष्यको उसकी प्राप्तिकी सब सामग्री मिली हुई है ।

प्रश्न‒विकारी सत्तासे अविकारी सत्ताको कुछ भी नहीं मिलता‒यह बात एकदम सच्‍ची है, फिर भीविकारी सत्तासे कुछ मिलेगा’यह वहम रहता है । यह वहम कैसे मिटेगा ?

उत्तर‒साधक अपने विवेकका ज्यों-ज्यों आदर करेगा, त्यों-त्यों यह वहम मिटता चला जायगा । अन्तमें यह वहम सर्वथा मिट जायगा और विवेक अविकारी सत्ताकी प्राप्ति कराकर स्वयं शान्त हो जायगा ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !