।। श्रीहरिः ।।



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         श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें द्विविध सत्ताका वर्णन



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द्विविधा  दृश्यते  सत्ता विकारिण्यविकारिणी ।

भूत्वाऽसतो भवित्री च सतो नित्या सनातनी ॥

सत्ता दो प्रकारकी होती है‒विकारी और अविकारी । उत्पन्‍न होनेके बाद जो सत्ता होती है, वहविकारी सत्ता’ कहलाती है; क्योंकि उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । जो सत्ता स्वतःसिद्ध है, वहअविकारी सत्ता’ कहलाती है; क्योंकि उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता । अतः गीतामें दूसरे अध्यायके सोलहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ कहते हैं कि जिसका कभी भाव (सत्ता) नहीं होता, वह असत् है, विकारी सत्ता है और जिसका कभी अभाव नहीं होता, वह सत् है, अविकारी सत्ता है‒नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ ।

उत्पन्‍न होना, उत्पन्‍न होनेके बाद सत्तावाला दीखना, बढ़ना, अवस्थान्तर होना (बदलना), क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार मात्र संसारमें होते हैं । जैसे, बच्चा पैदा होता है, पैदा होनेके बाद बच्चा है’ ऐसा दीखता है, वह बढ़ता है, उसकी अवस्थाओंका परिवर्तन होता है, वह क्षीण होता है और अन्तमें मर जाता है । ये छः विकार शरीर-संसारमें ही होते हैं, आत्मामें नहीं । कारण कि आत्मा न जन्मती है, न पैदा होकर सत्तावाली होती है, न बढ़ती है, न बदलती है, न क्षीण होती है और न मरती ही है (२ । २०) ।

गीतामें जहाँ-जहाँ शरीर और संसारका वर्णन है, वह सबविकारी सत्ता’ का वर्णन है और जहाँ-जहाँ परमात्मा और आत्माका वर्णन है, वह सबअविकारी सत्ता’ का वर्णन है ।

ज्ञातव्य

उत्पन्‍न होनेवाली विकारी सत्ता अनुत्पन्‍न अविकारी सत्ताके ही अधीन रहती है; क्योंकि विकारी सत्ताकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । विकारी सत्ता कितनी ही सत्य प्रतीत क्यों न होती हो, पर वह रहती है अविकारी सत्ताके अन्तर्गत ही । परन्तु अविकारी सत्ता विकारी सत्ताके अधीन नहीं है; क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है । जहाँ विकारी सत्ता नहीं है अर्थात् जहाँ देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति और क्रिया नहीं है, वहाँ भी अविकारी सत्ता ज्यों-की-त्यों परिपूर्ण रहती है । यह अविकारी सत्ता देश, काल, वस्तु आदिके भीतर और बाहर सर्वत्र परिपूर्ण है । अविकारी सत्ताको जाननेवाले और न जाननेवाले, माननेवाले और न माननेवालेमें भी यह अविकारी सत्ता समानरूपसे परिपूर्ण है । अविकारी सत्ताको जानें चाहे न जानें, मानें चाहे न मानें, स्वीकार करें चाहे न करें, अनुभवमें आये चाहे न आये, पर यह तो रहती ही है । यह जानने, मानने, स्वीकार करनेके अधीन नहीं है । अविकारी सत्ता विकारी सत्ताके बिना भी ज्यों-की-त्यों विद्यमान रहती है, पर विकारी सत्ता अविकारी सत्ताके बिना रह ही नहीं सकती; क्योंकि उसका आधार, आश्रय अविकारी सत्ता ही है ।