।। श्रीहरिः ।।



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   भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीताका योग





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तीनों योगोंसे निर्वाण-पदकी प्राप्ति

कर्मज्ञानभक्तियोगैर्निर्वाणब्रह्म       गम्यते ।

उक्तमेतल्लक्ष्यसाम्यं साधकानां तु गीतया ॥

सब साधकोंका प्रापणीय तत्त्व एक ही है । केवल साधकोंकी श्रद्धा, विश्वास, योग्यता, स्वभाव, रुचि आदि भिन्‍न-भिन्‍न होनेसे उनकी उपासनाओंमें, साधन-पद्धतियोंमें भिन्‍नता होती है । जैसे मनुष्योंमें भाषाभेद, वेशभेद, सम्प्रदायभेद आदि कई तरहके भेद होते हैं, पर सुख-दुःखका अनुभव सबको समान ही होता है अर्थात् अनुकूलताके आनेपर सुखी होनेमें और प्रतिकूलताके आनेपर दुःखी होनेमें सब समान ही होते हैं, ऐसे ही संसारसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख होनेके साधन अलग-अलग हैं, पर परमात्माकी प्राप्तिमें सब एक हो जाते हैं अर्थात् परमात्मा, सुख-शान्ति सबको एक समान ही प्राप्त होते हैं ।

भगवान्‌ने गीतामें कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनों योगोंसे निर्वाण-पदकी प्राप्ति बतायी है; जैसे‒

(१) कर्मयोग‒जो मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता, अहंतासे रहित होता है, उसको शान्तिकी प्राप्ति होती है । यह ब्राह्मी स्थिति कहलाती है । इस ब्राह्मी स्थितिमें यदि कोई अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो भी उसे निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है (२ । ७१-७२) ।

(२) ज्ञानयोग‒जिसका बाह्य पदार्थोंका सम्बन्धजन्य सुख मिट गया है, जिसको केवल परमात्मतत्त्वमें ही सुख मिलता है, जो परमात्मतत्त्वमें ही रमण करता है, ऐसा ब्रह्मभूत साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है । जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनकी द्विविधा मिट गयी है और जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं, वे निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं । जो काम-क्रोधसे रहित हो चुके हैं, जिनका मन अपने अधीन है और जो तत्त्वको जान गये हैं‒ऐसे साधकोंको जीते-जी और मरनेके बाद निर्वाण ब्रह्म प्राप्त है (५ । २४२६) ।

(३) भक्तियोग‒शान्त अन्तःकरणवाला, भयरहित और ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित साधक मनका संयमन करके चित्तको मुझमें लगाकर मेरे परायण हो जाय तो उसको मेरेमें रहनेवाली निर्वाणपरमा शान्ति प्राप्त हो जाती है (६ । १४-१५) ।

तीनों योगोंकी एकता

वस्तुतस्तु त्रयो योगा  अभिन्‍नास्ते परस्परम् ।

साधकानां रुचेर्भेदात्  त्रिविधा योगसंज्ञिता: ॥

गीतामें तीनों योगोंमें तीनों योगोंकी बात आयी है; जैसे‒

(१) कर्मयोग‒इसमें युक्त आसीत मत्परः’ (२ । ६१), मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा’ (३ । ३०), ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’ (५ । १०)‒यह भक्तियोगकी बात आयी है । सर्वभूतात्मभूतात्मा’ (५ । ७)‒यह ज्ञानयोगकी बात आयी है; क्योंकि ज्ञानयोगमें परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्‍नताकी बात मुख्य रहती है ।