Listen (२) ज्ञानयोग‒इसमें ‘सर्वभूतहिते
रताः’ (५ । २५; १२ । ४)‒यह कर्मयोगकी बात आयी है;
क्योंकि सब प्राणियोंके हितमें रति कर्मयोगकी मुख्य बात है ।
‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’
(१३ । १०)
‘मां
च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’ (१४ । २६)‒यह भक्तियोगकी बात आयी है;
क्योंकि भक्तियोगमें भगवान्की अनन्यता मुख्य है । (३) भक्तियोग‒इसमें ‘सर्वकर्मफलत्यागम्’ (१२ । ११) और ‘स्वकर्मणा
तमभ्यर्च्य’ (१८ । ४६)‒यह कर्मयोगकी बात आयी है, क्योंकि कर्मयोगमें कर्मफलका त्याग और अपने कर्मोंके द्वारा
जनता-जनार्दनका पूजन (सेवा) करना मुख्य होता है ।
‘अध्यात्मनित्याः’ (१५ ।
५)‒यह ज्ञानयोगकी बात आयी है;
क्योंकि ज्ञानयोगमें चिन्मय तत्त्वमें स्थित रहना मुख्य है ।
‘ते ब्रह्म
तद्विदुः’ (७ । २९)‒यह भी ज्ञानयोगकी बात है; क्योंकि ज्ञानयोगमें जानना मुख्य रहता है । इस प्रकार तीनों योगोंका तीनों योगोंमें आनेका तात्पर्य है कि
कोई भी व्यक्ति इन तीनों योगोंको परस्पर सर्वथा भिन्न न समझें;
क्योंकि ये तीनों योग वास्तवमें भिन्न नहीं है,
प्रत्युत एक ही हैं । इनमें केवल प्रणालीका भेद है । एक दृष्टिसे कर्मयोग और भक्तियोग पासमें पड़ते हैं;
क्योंकि कर्मयोगी सब कुछ (पदार्थ और क्रिया) संसारको देना चाहता
है और भक्तियोगी सब कुछ भगवान्को देना चाहता है (९ । २६-२७) । एक दृष्टिसे कर्मयोग और ज्ञानयोग पासमें पड़ते है;
क्योंकि कर्मयोगी पदार्थ और क्रियाकी आसक्ति छोड़कर संसारसे
अलग होता है (६ । ४); और ज्ञानयोगी पदार्थ और क्रियाको प्रकृतिमात्र समझकर और अपनेमें
असंगताका अनुभव करके संसारसे अलग होता है । तात्पर्य है कि कर्मयोगी ‘क्रिया’ के द्वारा
संसारसे अलग होता है और ज्ञानयोगी ‘विचार’ के द्वारा संसारसे अलग होता है । एक दृष्टिसे भक्तियोग और ज्ञानयोग पासमें पड़ते है;
क्योंकि भक्तियोगी सब कुछ भगवान्से पैदा हुआ मानता है (७ ।
१२;
१० । ५, ६, ८, ३९) और सब कुछ भगवान्में मानता है (६ । ३०; ७ । ७; ८ । २२) तथा ज्ञानयोगी सब कुछ प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ मानता
है ( १४ । १९; १८ । ४०) और सब कुछ प्रकृतिमें मानता है ( १३ । ३०) । तीनों योगोंमें कर्मोंका हेतु बननेका निषेध हेतोःकथनतात्पर्यं
सम्बन्ध: स्यान्न कुत्रचित् । तस्मान्निमित्तमात्रं वै भवेयुः साधका: सदा ॥ गीतामें भगवान्ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनों योगोंमें हेतुओंका वर्णन किया
है । जैसे‒
(१) कर्मयोग‒जब मनुष्य कर्मफलके साथ, कर्म करनेके करणोंके साथ,
कर्म करनेकी सामग्रीके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है,
तब वह कर्मका हेतु बन जाता है । ऐसे तो संसारमें बहुत-से कर्म
होते रहते है, पर उन कर्मोंके हम हेतु नहीं बनते और उन कर्मोंका फल हमें नहीं मिलता;
क्योंकि उन कर्मोंको साथ हमने सम्बन्ध नहीं जोड़ा । कर्मोंका
फल तो उन्हींको मिलता है, जो कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़ लेते हैं । अतः कर्मयोगके प्रकरणमें
भगवान् अर्जुनको मनुष्यमात्रका प्रतिनिधि बनाकर कहते हैं कि ‘तुम कर्मफलके हेतु मत बनो’‒‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’ (२ । ४७) अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन तो तत्परतासे करो, पर कर्म, कर्मफल, करण आदिके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो । तात्पर्य है कि कर्मयोगी
साधक कर्म, कर्मफल, शरीर आदि करणोंके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता,
इसलिये वह कर्मोंका हेतु नहीं बनता । |