।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीताका योग



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(२) ज्ञानयोग‒इसमें सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५; १२ । ४)‒यह कर्मयोगकी बात आयी है; क्योंकि सब प्राणियोंके हितमें रति कर्मयोगकी मुख्य बात है । ‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’ (१३ । १०) मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’ (१४ । २६)‒यह भक्तियोगकी बात आयी है; क्योंकि भक्तियोगमें भगवान्‌की अनन्यता मुख्य है ।

(३) भक्तियोग‒इसमें सर्वकर्मफलत्यागम्’ (१२ । ११) और स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (१८ । ४६)‒यह कर्मयोगकी बात आयी है, क्योंकि कर्मयोगमें कर्मफलका त्याग और अपने कर्मोंके द्वारा जनता-जनार्दनका पूजन (सेवा) करना मुख्य होता है ।अध्यात्मनित्याः’ (१५ । ५)‒यह ज्ञानयोगकी बात आयी है; क्योंकि ज्ञानयोगमें चिन्मय तत्त्वमें स्थित रहना मुख्य है । ते ब्रह्म तद्विदुः’ (७ । २९)‒यह भी ज्ञानयोगकी बात है; क्योंकि ज्ञानयोगमें जानना मुख्य रहता है ।

इस प्रकार तीनों योगोंका तीनों योगोंमें आनेका तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति इन तीनों योगोंको परस्पर सर्वथा भिन्‍न न समझें; क्योंकि ये तीनों योग वास्तवमें भिन्‍न नहीं है, प्रत्युत एक ही हैं । इनमें केवल प्रणालीका भेद है ।

एक दृष्टिसे कर्मयोग और भक्तियोग पासमें पड़ते हैं; क्योंकि कर्मयोगी सब कुछ (पदार्थ और क्रिया) संसारको देना चाहता है और भक्तियोगी सब कुछ भगवान्‌को देना चाहता है (९ । २६-२७) ।

एक दृष्टिसे कर्मयोग और ज्ञानयोग पासमें पड़ते है; क्योंकि कर्मयोगी पदार्थ और क्रियाकी आसक्ति छोड़कर संसारसे अलग होता है (६ । ४); और ज्ञानयोगी पदार्थ और क्रियाको प्रकृतिमात्र समझकर और अपनेमें असंगताका अनुभव करके संसारसे अलग होता है । तात्पर्य है कि कर्मयोगी ‘क्रिया’ के द्वारा संसारसे अलग होता है और ज्ञानयोगी ‘विचार’ के द्वारा संसारसे अलग होता है ।

एक दृष्टिसे भक्तियोग और ज्ञानयोग पासमें पड़ते है; क्योंकि भक्तियोगी सब कुछ भगवान्‌से पैदा हुआ मानता है (७ । १२; १० । ५, ६, ८, ३९) और सब कुछ भगवान्‌में मानता है  (६ । ३०; ७ । ७; ८ । २२) तथा ज्ञानयोगी सब कुछ प्रकृतिसे उत्पन्‍न हुआ मानता है ( १४ । १९; १८ । ४०) और सब कुछ प्रकृतिमें मानता है ( १३ । ३०) ।

तीनों योगोंमें कर्मोंका हेतु बननेका निषेध

हेतोःकथनतात्पर्यं सम्बन्ध: स्यान्‍न कुत्रचित् ।

तस्मान्‍निमित्तमात्रं वै भवेयुः साधका:  सदा ॥

गीतामें भगवान्‌ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनों योगोंमें हेतुओंका वर्णन किया है । जैसे‒

(१) कर्मयोग‒जब मनुष्य कर्मफलके साथ, कर्म करनेके करणोंके साथ, कर्म करनेकी सामग्रीके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, तब वह कर्मका हेतु बन जाता है । ऐसे तो संसारमें बहुत-से कर्म होते रहते है, पर उन कर्मोंके हम हेतु नहीं बनते और उन कर्मोंका फल हमें नहीं मिलता; क्योंकि उन कर्मोंको साथ हमने सम्बन्ध नहीं जोड़ा । कर्मोंका फल तो उन्हींको मिलता है, जो कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़ लेते हैं । अतः कर्मयोगके प्रकरणमें भगवान्‌ अर्जुनको मनुष्यमात्रका प्रतिनिधि बनाकर कहते हैं कि तुम कर्मफलके हेतु मत बनो’मा कर्मफलहेतुर्भूः (२ । ४७) अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन तो तत्परतासे करो, पर कर्म, कर्मफल, करण आदिके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो । तात्पर्य है कि कर्मयोगी साधक कर्म, कर्मफल, शरीर आदि करणोंके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता, इसलिये वह कर्मोंका हेतु नहीं बनता ।