Listen (२) ज्ञानयोग‒प्रकृतिके राज्यमें, संसारमें, शरीरमें जितनी भी क्रियाएँ होती हैं,
सांख्ययोगी उन सबको प्रकृतिमें,
गुणोंमें और इन्द्रियोंमें होनेवाली ही मानता है,
अपनेमें होनेवाली नहीं । भगवान् कहते हैं कि प्रकृतिके द्वारा
ही सब कर्म किये जाते हैं‒ऐसा जो देखता है, वह अपनेमें अकर्तृत्वका अनुभव करता है (१३ । २९) । गुण ही गुणोंमें
बरत रहे हैं अर्थात् क्रियामात्र गुणोंमें ही हो रही है‒ऐसा मानकर तत्त्ववित् पुरुष
उसमें आसक्त नहीं होता (३ । २८) । देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि सभी क्रियाएँ इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं,
स्वरूपभूत मैं कुछ नहीं करता हूँ‒ऐसा वह मानता है (५ । ८-९)
। अतः सांख्ययोगके प्रकरणमें भगवान्ने कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको
उत्पन्न करनेमें प्रकृतिको हेतु बताया है‒‘कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते’ (१३ । २०) । सम्पूर्ण कर्मोंके होनेमें शरीर,
कर्ता, करण, चेष्टा और संस्कार‒ये पाँच हेतु बताये गये हैं (१८ । १४) । तेरहवें अध्यायमें बीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें जो सुख-दुःखके
भोक्तापनमें पुरुषको हेतु बताया है; वहाँ भी वास्तवमें सुखी-दुःखी होनेमात्रमें पुरुष
हेतु है,
भोक्तापनमें हेतु नहीं; क्योंकि भोग भी क्रियाजन्य ही होता है । अतः क्रियाजन्य भोगमें
भी प्रकृति ही हेतु है । जो अपनेको प्रकृतिमें स्थित मानता है,
वही पुरुष सुखी-दुःखी होता है (१३ । २१),
परन्तु जो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त होते हैं,
वे सुखी-दुःखी नहीं होते । तात्पर्य है कि सांख्ययोगी साधक सम्पूर्ण
क्रियाओंको प्रकृतिमें ही मानता है; अतः वह न कर्म करता है और न कर्म करवाता है (५ । १३) अर्थात्
वह किसी भी कर्म, कर्मफल आदिका हेतु नहीं बनता । (३) भक्तियोग‒जब भक्त भगवान्के प्रति सर्वथा समर्पित हो जाता है,
अपने-आपको भगवान्को दे देता है,
तो फिर करना-करवाना सब भगवान्के द्वारा ही होता है । भक्त तो
केवल निमित्तमात्र बनता है । अतः भक्तियोगके प्रकरणमें भगवान्ने अपने प्रिय भक्त अर्जुनसे
कहा कि यहाँ सेनामें जितने भी योद्धालोग खड़े हैं, वे सब मेरेद्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं । इनके मारनेमें तू
निमित्तमात्र बन जा‒‘निमित्तमात्रं भव’ (११ । ३३) । ‒इस प्रकार तीनों योगोंमें तीन हेतु देनेका तात्पर्य है कि तीनों
ही योगोंके साधक कर्मोंको करनेमें अपनेको हेतु नहीं बनाते,
प्रत्युत निमित्तमात्र ही रहते हैं । हाँ, लोगोंको वे हेतु बनते
हुए दीख सकते हैं, पर वास्तवमें वे हेतु नहीं बनते । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |