।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीताका योग



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(२) ज्ञानयोग‒प्रकृतिके राज्यमें, संसारमें, शरीरमें जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, सांख्ययोगी उन सबको प्रकृतिमें, गुणोंमें और इन्द्रियोंमें होनेवाली ही मानता है, अपनेमें होनेवाली नहीं । भगवान्‌ कहते हैं कि प्रकृतिके द्वारा ही सब कर्म किये जाते हैं‒ऐसा जो देखता है, वह अपनेमें अकर्तृत्वका अनुभव करता है (१३ । २९) । गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् क्रियामात्र गुणोंमें ही हो रही है‒ऐसा मानकर तत्त्ववित् पुरुष उसमें आसक्त नहीं होता (३ । २८) । देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि सभी क्रियाएँ इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं, स्वरूपभूत मैं कुछ नहीं करता हूँ‒ऐसा वह मानता है (५ । ८-९) । अतः सांख्ययोगके प्रकरणमें भगवान्‌ने कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्‍न करनेमें प्रकृतिको हेतु बताया है‒कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते (१३ । २०) । सम्पूर्ण कर्मोंके होनेमें शरीर, कर्ता, करण, चेष्टा और संस्कार‒ये पाँच हेतु बताये गये हैं (१८ । १४) ।

तेरहवें अध्यायमें बीसवें श्‍लोकके उत्तरार्धमें जो सुख-दुःखके भोक्तापनमें पुरुषको हेतु बताया है; वहाँ भी वास्तवमें सुखी-दुःखी होनेमात्रमें पुरुष हेतु है, भोक्तापनमें हेतु नहीं; क्योंकि भोग भी क्रियाजन्य ही होता है । अतः क्रियाजन्य भोगमें भी प्रकृति ही हेतु है । जो अपनेको प्रकृतिमें स्थित मानता है, वही पुरुष सुखी-दुःखी होता है (१३ । २१), परन्तु जो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त होते हैं, वे सुखी-दुःखी नहीं होते । तात्पर्य है कि सांख्ययोगी साधक सम्पूर्ण क्रियाओंको प्रकृतिमें ही मानता है; अतः वह न कर्म करता है और न कर्म करवाता है (५ । १३) अर्थात् वह किसी भी कर्म, कर्मफल आदिका हेतु नहीं बनता ।

(३) भक्तियोग‒जब भक्त भगवान्‌के प्रति सर्वथा समर्पित हो जाता है, अपने-आपको भगवान्‌को दे देता है, तो फिर करना-करवाना सब भगवान्‌के द्वारा ही होता है । भक्त तो केवल निमित्तमात्र बनता है । अतः भक्तियोगके प्रकरणमें भगवान्‌ने अपने प्रिय भक्त अर्जुनसे कहा कि यहाँ सेनामें जितने भी योद्धालोग खड़े हैं, वे सब मेरेद्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं । इनके मारनेमें तू निमित्तमात्र बन जा‒निमित्तमात्रं भव (११ । ३३) ।

इस प्रकार तीनों योगोंमें तीन हेतु देनेका तात्पर्य है कि तीनों ही योगोंके साधक कर्मोंको करनेमें अपनेको हेतु नहीं बनाते, प्रत्युत निमित्तमात्र ही रहते हैं । हाँ, लोगोंको वे हेतु बनते हुए दीख सकते हैं, पर वास्तवमें वे हेतु नहीं बनते ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !