Listen सर्वे मानवदेहत्वात्
प्रभुप्राप्त्यधिकारिणः । तस्मात् केनापि मार्गेण हरि प्राप्नोति मानवः ॥ अन्य शास्त्रोंमें ज्ञान, योग आदि मार्गोंके अलग-अलग अधिकारी
बताये गये हैं; जैसे‒जो साधन-चतुष्टयसे सम्पन्न है, वह ज्ञानका अधिकारी है;
जो मूढ़ और क्षिप्त वृत्तिवाला नहीं है, प्रत्युत विक्षिप्त वृत्तिवाला
है, वह पातञ्जलयोगका अधिकारी है आदि-आदि । परन्तु भगवान्की यह एक विचित्र उदारता,
दयालुता है कि उन्होंने गीतामें मनुष्यमात्रको भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोगका अधिकारी
बताया है । तात्पर्य है कि भगवान्की प्राप्ति चाहनेवाले सब-के-सब मनुष्य गीतोक्त
योगके अधिकारी हैं । भक्तियोगके अधिकारी सप्ताधिकारिणो
भक्तेर्ब्राह्मणाः क्षत्रियाः स्त्रियः । वैश्याः शूद्रा दुराचारा येऽपि स्युः पापयोनयः ॥ भगवान्ने भक्तिके अधिकारियोंका वर्णन करते हुए पहले नंबरमें
दुराचारीका नाम लिया कि अगर दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता
है तो उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने मेरी तरफ चलनेका निश्चय कर लिया है । वह शीघ्र
ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है (९ । ३०-३१)
। दूसरे नंबरमें पापयोनिका नाम लिया,
जिनका जन्म पूर्वकृत पापोंके कारण चाण्डाल आदिकी योनिमें हुआ
है (९ । ३२) । तीसरे नंबरमें चारों वर्णोंकी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्रोंका
नाम लिया, जो कि मध्यम श्रेणीके हैं (९ । ३२) । चौथे नम्बरमें पवित्र ब्राह्मण और राजर्षि क्षत्रियोंका नाम
लिया,
जो कि जन्म और आचरणकी दृष्टिसे उत्तम हैं (९ । ३३) । इस प्रकार दुराचारी, पापयोनि, स्त्री, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण और क्षत्रिय‒इन भक्तिके सात अधिकारियोंके अन्तर्गत
मात्र प्राणी आ जाते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि मात्र प्राणी भक्तिके अधिकारी हैं । कारण
कि भगवान्का अंश होनेसे मात्र प्राणियोंका भगवान्के साथ अखण्ड,
अटूट और नित्य सम्बन्ध है । उनसे यही गलती हुई कि उन्होंने जो
अपना नहीं है, उसको तो अपना मान लिया और जो खास अपना है, उसको अपना मानना छोड़ दिया । भक्तिके अधिकारी तो सात हैं, पर भावोंके अनुसार उनके चार प्रकार हैं‒अर्थार्थी,
आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (७ । १६) । जो धनप्राप्तिके लिये भगवान्का
भजन करते हैं और धन केवल भगवान्से ही चाहते हैं, धनप्राप्तिके लिये अन्यका सहारा नहीं लेते,
वे (सांसारिक पदार्थोंकी कामना होनेके कारण)
‘अर्थार्थी भक्त’
कहलाते हैं । जिनमें अर्थार्थी भक्तों-जैसी सांसारिक कामना तो
नहीं है,
पर सामने दुःख आनेपर उसे सह नहीं सकते और भगवान्को पुकार उठते
हैं अर्थात् अपना दुःख दूर करनेके लिये भगवान्के सिवाय अन्य किसीका सहारा नहीं लेते,
वे (दुःख दूर करनेकी कामना होनेके कारण) ‘आर्त भक्त’ कहलाते हैं । जिनमें न तो सांसारिक पदार्थोंकी और न दुःख दूर
करनेकी ही कामना है, पर जो भगवत्तत्त्व जाननेके लिये भगवान्का भजन करते हैं और उसको
केवल भगवान्से ही जानना चाहते हैं, वे (तत्त्व जाननेकी कामना होनेके कारण) ‘जिज्ञासु भक्त’
कहलाते हैं । जो भगवान्से कुछ भी नहीं चाहते,
केवल भगवान्को ही चाहते हैं और नित्य-निरन्तर भगवान्में ही
लगे रहते हैं, वे (अपनी कुछ भी कामना न होनेके कारण) ‘ज्ञानी भक्त’ अर्थात् प्रेमी भक्त कहलाते हैं । ये प्रेमी भक्त भगवान्को
अत्यन्त प्यारे होते हैं और इन प्रेमी भक्तोंको भगवान् अत्यन्त प्यारे होते हैं (७
। १७) । इन प्रेमी भक्तोंको भगवान्ने अपनी आत्म (स्वरूप) बताया है (७ । १८) । इन्हीं
भक्तोंको भगवान्ने पंद्रहवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें ‘सर्ववित्’ कहा है । तात्पर्य है कि जिन मनुष्योंका उद्देश्य
केवल भगवान् ही हैं, उनमें चाहे लौकिक कामना हो, चाहे पारमार्थिक कामना हो, चाहे कोई भी कामना न हो, वे सब-के-सब भक्तिके अधिकारी हैं । श्रीमद्भागवतमें भी आया है‒ अकामः
सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः । तीव्रेण
भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ (२ । ३ । १०)
‘जो बुद्धिमान् मनुष्य है, वह चाहे सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित हो, चाहे सम्पूर्ण कामनाओंसे युक्त हो, चाहे मोक्षकी कामनावाला हो, उसे तो केवल तीव्र भक्तियोगके द्वारा परमपुरुष भगवान्का
ही भजन करना चाहिये ।’ |