Listen ज्ञानयोगके अधिकारी ये नरा
ज्ञातुमिच्छन्ति स्वरूपं संशयात्मकाः । सर्वे ते ज्ञानयोगस्य
भवेयुरधिकारिणः ॥ जैसे भक्तिके सभी अधिकारी हैं,
ऐसे ही ज्ञानके भी सभी अधिकारी हैं । भगवान्ने गीतामें बताया
है कि जिस ज्ञानको मनुष्य श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुकी सेवा करके,
उनके अनुकूल बनकर जिज्ञासापूर्वक प्रश्न करके प्राप्त करता
है और जिस ज्ञानको प्राप्त करके फिर कभी मोह हो ही नहीं सकता तथा जिस ज्ञानसे साधक
पहले सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें और फिर परमात्मामें देखता है,
वही ज्ञान (तीव्र जिज्ञासा होनेपर) अत्यन्त पापीको भी प्राप्त
हो सकता है (४ । ३४‒३६) । भगवान् कहते हैं कि जगत्के सम्पूर्ण पापियोंसे भी अधिक पापी
अगर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो वह भी ज्ञानको प्राप्त करके ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा
सम्पूर्ण पाप-समुद्रको तर जाता है । जैसे प्रदीप्त अग्नि लकड़ियोंके ढेरको जलाकर भस्म
कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण पापोंको सर्वथा भस्म कर देती है (४ । ३६-३७)
। जब पापी-से-पापीको भी ज्ञान हो सकता है,
तब जो श्रद्धावान् है, अपने साधनमें तत्पर है, और जितेन्द्रिय है, उसको ज्ञान हो जाय‒इसमें तो कहना ही क्या है ! (४ । ३९) कई तो ध्यानयोगके द्वारा, कई सांख्ययोगके द्वारा और कई कर्मयोगके द्वारा अपने-आपमें उस
परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं (१३ । २४) । परन्तु जो इन साधनोंको नहीं जानते,
वे मनुष्य केवल तत्त्वज्ञ महापुरुषोंसे सुनकर,
उनकी आज्ञाके अनुसार चलकर ही ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं (१३
। २५) । तात्पर्य है कि मनुष्य चाहे श्रद्धावान् साधक हो,
चाहे पापी-से-पापी हो, चाहे अनजान-से-अनजान हो, अगर वह ज्ञान चाहता है तो उसे ज्ञान हो सकता है । कर्मयोगके अधिकारी ये निर्ममास्तु
निष्कामा इच्छन्ति भवितुं नराः । सर्वे ते कर्मयोगस्य
भवेयुरधिकारिणः ॥ जैसे भक्तियोग और ज्ञानयोगके सभी अधिकारी हैं,
ऐसे ही कर्मयोगके भी सभी अधिकारी हैं । जो सांसारिक कामनाओंसे
रहित होना चाहता है अर्थात् जो अपना उद्धार चाहता है,
वह चाहे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका हो और जहाँ-कहीं भी रहता हो,
अगर वह निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करता है
तो उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है (१८ । ४५) । जो फलासक्तिका त्याग करके ममतारहित
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं; वे कर्मयोगी
हैं (५ । ११) । ऐसे कर्मयोगियोंके सम्पूर्ण (क्रियमाण,
संचित और प्रारब्ध) कर्म लीन हो जाते हैं (४ । २३) ।
तात्पर्य है कि जो फलासक्तिका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये
अपने कर्तव्यका पालन करते हैं, वे सभी कर्मयोगके अधिकारी हैं । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |