Listen कर्मयोगे
ज्ञानयोगे भक्तियोगे तथैव च । अस्ति साधनसिद्धौ च गीतायां तु समानता ॥ गीतामें भगवान्ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही योगोंमें एक-जैसी बात कही है;
जैसे‒ कर्मयोगमें‒ कर्मण्यकर्म
यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । (४ । १८) ‘जो मनुष्य कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखता है ।’ ज्ञानयोगमें‒ सर्वभूतस्थमात्मानं
सर्वभूतानि चात्मनि । (६ । २९) ‘जो आत्माको सम्पूर्ण प्राणियोंमें और सम्पूर्ण प्राणियोंको आत्मामें देखता है ।’ और भक्तियोगमें‒ यो मां
पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । (६ । ३०) ‘जो सब जगह मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है ।’ इस प्रकार तीनों योगोंमें एक ही तरहकी बात कहनेका तात्पर्य यह
है कि साधक जिस योगका अधिकारी हो, उस योगके तत्त्वको वह असंदिग्धरूपसे समझ ले । कर्मयोगमें
‘अकर्म’
ज्ञानयोगमें ‘आत्मा’ और भक्तियोगमें ‘भगवान्’ मुख्य हैं । तात्पर्य है कि अकर्म,
आत्मा और भगवान्‒तीनों तत्त्वसे एक ही हैं । कर्मयोगमें ‘कर्म’ का अभाव और ‘अकर्म’ का भाव है । जैसे, प्रत्येक कर्मका आरम्भ और समाप्ति होती है;
परन्तु कर्मके आरम्भ होनेसे पहले भी अकर्म था और कर्मके समाप्त
होनेके बाद भी अकर्म रहेगा । यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु आदि और अन्तमें रहती है,
वह मध्यमें भी रहती है । इसलिये कर्म करते समय अकर्म ज्यों-का-त्यों
ही है । ज्ञानयोगमें ‘सर्वभूत’
का अभाव और ‘आत्मा’ का भाव है । जैसे, सब शरीरोंका जन्म और मरण होता है;
परन्तु शरीरोंके जन्मसे पहले भी आत्मा थी और शरीरोंके मरनेके
बाद भी आत्मा रहेगी । इसलिये शरीरोंके रहते हुए भी आत्मा ज्यों-की-त्यों ही है । भक्तियोगमें ‘सर्व’ का अभाव और ‘भगवान्का’ भाव है । जैसे, संसार उत्पन्न और नष्ट होता है;
परन्तु संसारके उत्पन्न होनेसे पहले भी भगवान् थे और संसारके
नष्ट होनेके बाद भी भगवान् रहेंगे । इसलिये संसारके रहते हुए भी भगवान् ज्यों-के-त्यों
ही हैं ।
अकर्म (निर्लिप्तता), आत्मा और भगवान्‒ये तीनों स्वतःसिद्ध
हैं । जो वस्तु स्वतःसिद्ध होती है, वह सदाके लिये होती है, सभीके लिये होती है और सब जगह होती है । परन्तु पूर्वोक्त कर्म,
सर्वभूत और सर्व (वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, परिस्थिति, अवस्था आदि)‒ये तीनों स्वतःसिद्ध नहीं है;
अतः ये सदाके लिये, सभीके लिये और सब जगह नहीं हैं । |