Listen जो वस्तु कभी है और कभी नहीं है,
किसीको मिलती है और किसीको नहीं मिलती,
कहीं है और कहीं नहीं है, उसकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थसे होती है । इसलिये कर्म,
सर्वभूत और सर्वकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थके आश्रित है अर्थात्
इनकी प्राप्ति अभ्याससाध्य है । परन्तु अकर्म, आत्मा और भगवान्की प्राप्ति अभ्याससाध्य नहीं है,
प्रत्युत निष्कामभाव, विवेक और विश्वासके द्वारा साध्य है । यदि इनकी प्राप्ति अभ्याससाध्य
होती तो ये सदाके लिये, सभीको और सब जगह प्राप्त नहीं होते । कर्म, सर्वभूत और सर्व कभी होते हैं,
और कभी नहीं होते, किसीको मिलते हैं और किसीको नहीं मिलते,
कहीं होते हैं और कहीं नहीं होते,
इसलिये स्वयंको इनकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है । इनकी
आवश्यकताका अनुभव करना अकर्म, आत्मा और भगवान्से विमुख होना है । अकर्म,
आत्मा और भगवान्‒इन तीनोंका अनुभव करनेके लिये उत्पत्ति-विनाशशील
शरीर,
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, योग्यता, परिस्थिति आदिकी किञ्चिन्मात्र भी अवश्यकता नहीं है । परन्तु
यह बात मनुष्यकी समझमें इसलिये नहीं आती कि वह इस वास्तविकताको स्वयंसे अनुभव न करके
इन्द्रियोंसे एवं अन्तःकरणसे अनुभव करनेकी चेष्टा करता है । कारण कि ऐसा करनेका उसका
स्वभाव पड़ा हुआ है । अकर्म, आत्मा और भगवान्‒ये तीनों तत्त्वसे एक ही हैं और इनका हमारे
साथ नित्य-सम्बन्ध है । परन्तु कर्म, सर्वभूत और सर्व‒इन तीनोंसे हमारा नित्य सम्बन्ध-विच्छेद है
। कर्मसे सम्बन्ध-विच्छेदका अनुभव होनेपर ‘अकर्म’ शेष रह जाता है । अकर्ममें आत्मा भी है और भगवान् भी । सर्वभूतसे
सम्बन्ध-विच्छेदका अनुभव होनेपर ‘आत्मा’ शेष रह जाती है । आत्मामें अकर्म भी है और भगवान् भी । सर्वसे
सम्बन्ध-विच्छेदका अनुभव होनेपर ‘भगवान्’ शेष रह जाते हैं । भगवान्में अकर्म भी है और आत्मा
भी । कर्ममें अकर्मका अनुभव करनेवाला
‘कृतकृत्य’
हो जाता है‒‘स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्’ (४ । १८) । सर्वभूतमें आत्माका अनुभव करनेवाला ‘ज्ञातज्ञातव्य’
हो जाता है‒‘ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः’ (६ । २९) । सर्वमें भगवान्का अनुभव करनेवाला ‘प्राप्तप्राप्तव्य’
हो जाता है‒‘तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति’
(६ । ३०) । कृतकृत्यता, ज्ञातज्ञातव्यता और प्राप्त-प्राप्तव्यता‒इन तीनोंमेंसे एककी
भी प्राप्ति होनेसे शेष दोनों बातें स्वतः आ जाती हैं अर्थात् कृतकृत्य होनेसे कर्मयोगी
ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य भी हो जाता है, ज्ञातज्ञातव्य होनेसे ज्ञानयोगी कृतकृत्य और प्राप्तप्राप्तव्य
भी हो जाता है तथा प्राप्तप्राप्तव्य होनेसे भक्तियोगी कृतकृत्य और ज्ञातज्ञातव्य भी
हो जाता है । कृतकृत्यता (कुछ करना शेष न रहना), ज्ञातज्ञातव्यता (कुछ जानना
शेष न रहना) और प्राप्तप्राप्तव्यता (कुछ पाना शेष न रहना)‒ये तीनों होनेसे पूर्णावस्था
प्राप्त हो जाती है अर्थात् मनुष्यजन्म सर्वथा सार्थक हो जाता है ।
मनुष्य जबतक अपने लिये कुछ भी करता है, तबतक वह कृतकृत्य नहीं होता । परन्तु जब वह अपने लिये कुछ नहीं
करता,
केवल दूसरोंके लिये सब कर्म करता है,
तब वह कृतकृत्य हो जाता है । जब साधक अपने स्वरूपको यथार्थरूपसे
जान लेता है, अनुभव कर लेता है, तब वह ज्ञातज्ञातव्य हो जाता है । केवल भगवान्को अपना माननेसे,
दूसरोंको अपना न माननेसे साधक प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है
। तात्पर्य है कि करनेके लिये केवल सेवा है, जाननेके लिये केवल अपना स्वरूप है और पानेके लिये केवल भगवान्
हैं । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |