।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें तीनों योगोंकी महत्ता



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त्रयो हि योगाः सुगमा वरिष्ठाः सिद्धिप्रदाः पापनिवारकाश्च ।

तुष्टिप्रशान्तिप्रदसाम्यदाश्च  ज्ञानाच्छदातार  उदीरिताश्च ॥

भगवान्‌ने गीतामें तीनों योगोंको स्वतन्त्र साधन बताया है और उनकी नौ-नौ बातें बताकर उनकी महत्ता प्रकट की है–

कर्मयोग

(१) श्रेष्ठ‒कर्मयोग ज्ञानयोगसे श्रेष्ठ है‒तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते’ (५ । २) । कारण कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कर्म कर्तव्य-परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये अर्थात् दूसरोंके लिये ही किये जाते हैं । अतः अपने सुख-आराम, आदर-महिमा विद्या-बुद्धिका अभिमान, भोग और संग्रहकी इच्छा आदिका त्याग सुगमतासे हो जाता है, जब कि ज्ञानयोगमें, विवेक-विचारके द्वारा अपने सुख-आरामका त्याग करनेमें कठिनता पड़ती है ।

कर्मयोग ध्यानयोगसे भी श्रेष्ठ है‒ध्यानात्कर्मफलत्यागः’ (१२ । १२) । कारण कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कर्मोंके फलका अर्थात् फलेच्छाका त्याग है, जब कि ध्यानयोगमें कर्मफलका त्याग नहीं है ।

कर्मोंका त्याग करनेकी अपेक्षा आसक्तिरहित होकर कर्म करनेवाला कर्मयोगी श्रेष्ठ है‒‘कर्मेन्दियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते’ (३ । ७) । कारण कि आसक्तिरहित होकर कर्म करना योग (समता)-पर आरूढ़ होनेमें कारण है (६ । ३) और कर्मोंका त्याग करनेमात्रसे सिद्धिकी प्राप्‍ति नहीं होती (३ । ४) ।

(२) सुगम‒कर्मयोगी सुखपूर्वक बन्धनसे मुक्‍त हो जाता है‒सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ (५ । ३) । कारण कि उसमें राग-द्वेष नहीं होते, प्रत्युत समता रहती है । ऐसे तो सम्पूर्ण मनुष्य कर्म करते ही हैं, पर राग-द्वेष होनेसे, सिद्धि-असिद्धिमें सुखी-दुःखी होनेसे वे बन्धनसे मुक्‍त नहीं हो पाते ।

(३) शीघ्र सिद्धि‒समतायुक्त कर्मयोगी बहुत जल्दी परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है‒योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति’ (५ । ६) । कारण कि उसमें कर्म और कर्मफलकी आसक्ति नहीं होती और संसारका आश्रय नहीं रहता (४ । २०) ।

(४) पापोंका नाश‒जो केवल यज्ञके लिये अर्थात् कर्तव्य-परम्पराको सुरक्षित रखनेके उद्देश्यसे ही कर्म करता है, उसके सम्पूर्ण कर्म, पाप विलीन हो जाते हैं‒यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ । २३) । कारण कि यज्ञार्थ कर्म करनेसे अपनेमें कर्मोंके फलकी आसक्ति, कामना आदि नहीं रहते ।

कर्म क्या है और अकर्म क्या है‒इसको ठीक-ठीक जानकर कर्म करनेसे कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म जल जाते हैं‒ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्’ (४ । १९) । कारण कि उसके सम्पूर्ण कर्म कामना और संकल्पसे रहित होते हैं । अतः उन कर्मोंकी बाँधनेकी शक्‍ति नष्ट हो जाती है ।

(५) संतुष्टि‒कर्मयोगी अपने-आपमें संतुष्ट हो जाता है‒आत्मन्येवात्मना तुष्टः’ (२ । ५५) आत्मन्येव च संतुष्टः (३ । १७) । कारण कि उसमें सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग होता है । अतः उसकी सन्तुष्टि पराधीन नहीं होती ।