Listen त्रयो
हि योगाः सुगमा वरिष्ठाः सिद्धिप्रदाः पापनिवारकाश्च । तुष्टिप्रशान्तिप्रदसाम्यदाश्च ज्ञानाच्छदातार उदीरिताश्च ॥ भगवान्ने गीतामें तीनों योगोंको स्वतन्त्र साधन बताया है और
उनकी नौ-नौ बातें बताकर उनकी महत्ता प्रकट की है– कर्मयोग (१) श्रेष्ठ‒कर्मयोग ज्ञानयोगसे श्रेष्ठ है‒‘तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते’ (५ । २) । कारण कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कर्म कर्तव्य-परम्परा
सुरक्षित रखनेके लिये अर्थात् दूसरोंके लिये ही किये जाते हैं । अतः अपने सुख-आराम,
आदर-महिमा विद्या-बुद्धिका अभिमान,
भोग और संग्रहकी इच्छा आदिका त्याग सुगमतासे हो जाता है,
जब कि ज्ञानयोगमें, विवेक-विचारके द्वारा अपने सुख-आरामका त्याग करनेमें कठिनता
पड़ती है । कर्मयोग ध्यानयोगसे भी श्रेष्ठ है‒‘ध्यानात्कर्मफलत्यागः’ (१२ । १२) । कारण कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कर्मोंके फलका अर्थात्
फलेच्छाका त्याग है, जब कि ध्यानयोगमें कर्मफलका त्याग नहीं है । कर्मोंका त्याग करनेकी अपेक्षा आसक्तिरहित होकर कर्म करनेवाला
कर्मयोगी श्रेष्ठ है‒‘कर्मेन्दियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते’
(३ । ७) । कारण कि आसक्तिरहित
होकर कर्म करना योग (समता)-पर आरूढ़ होनेमें कारण है (६ । ३) और कर्मोंका त्याग करनेमात्रसे
सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती (३ । ४) । (२) सुगम‒कर्मयोगी सुखपूर्वक बन्धनसे मुक्त हो जाता है‒‘सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’
(५ । ३) । कारण कि उसमें राग-द्वेष
नहीं होते, प्रत्युत समता रहती है । ऐसे तो सम्पूर्ण मनुष्य कर्म करते ही हैं,
पर राग-द्वेष होनेसे, सिद्धि-असिद्धिमें सुखी-दुःखी होनेसे वे बन्धनसे मुक्त नहीं
हो पाते । (३) शीघ्र सिद्धि‒समतायुक्त कर्मयोगी बहुत जल्दी परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो
जाता है‒‘योगयुक्तो
मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति’ (५ । ६) । कारण कि उसमें कर्म और कर्मफलकी आसक्ति नहीं होती और
संसारका आश्रय नहीं रहता (४ । २०) । (४) पापोंका नाश‒जो केवल यज्ञके लिये अर्थात् कर्तव्य-परम्पराको सुरक्षित रखनेके
उद्देश्यसे ही कर्म करता है, उसके सम्पूर्ण कर्म, पाप विलीन हो जाते हैं‒‘यज्ञायाचरतः
कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ । २३) । कारण कि यज्ञार्थ कर्म करनेसे अपनेमें कर्मोंके फलकी
आसक्ति, कामना आदि नहीं रहते । कर्म क्या है और अकर्म क्या है‒इसको ठीक-ठीक जानकर कर्म करनेसे
कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म जल जाते हैं‒‘ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्’ (४ । १९) । कारण कि उसके सम्पूर्ण कर्म कामना और संकल्पसे रहित
होते हैं । अतः उन कर्मोंकी बाँधनेकी शक्ति नष्ट हो जाती है ।
(५) संतुष्टि‒कर्मयोगी अपने-आपमें संतुष्ट हो जाता है‒‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’
(२ । ५५)
‘आत्मन्येव
च संतुष्टः (३ । १७) । कारण कि उसमें सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग होता है । अतः उसकी सन्तुष्टि
पराधीन नहीं होती । |