Listen (६) शान्तिकी प्राप्ति‒कर्मयोगी शान्तिको प्राप्त हो जाता है‒‘स शान्तिमधिगच्छति’ (२ । ७१), ‘शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्’ (५ । १२) । कारण कि उसमें कामना, ममता आदि नहीं रहते अर्थात्
उसका संसारसे सम्बन्ध नहीं रहता । (७) समताकी प्राप्ति‒कर्मयोगी सिद्धि और असिद्धिमें सम हो जाता है‒‘समः
सिद्धावसिद्धौ च’ (४ । २२) । कारण कि उसको कर्मकी सिद्धि-असिद्धि,
पूर्ति-अपूर्तिमें हर्ष-शोक, राग-द्वेष नहीं होते । (८) ज्ञानकी प्राप्ति‒कर्मयोगसे सिद्ध हुए मनुष्यको अपने स्वरूपका ज्ञान (बोध) अपने-आप
हो जाता है‒‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’
(४ । ३८) । कारण कि उसमें संसारका आकर्षण, जड़ता नहीं रहती । जड़ता
न रहनेसे स्वतः सिद्ध स्वरूप रह जाता है । (९) प्रसन्नता (स्वच्छता)-की प्राप्ति‒कर्मयोगी अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त हो जाता है‒‘प्रसादमधिगच्छति’ (२ । ६४) । कारण कि राग-द्वेषपूर्वक विषयोंका सेवन करनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति,
हलचल होती है; परन्तु कर्मयोगी साधक राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करता
है;
अतः उसका अन्तःकरण स्वच्छ, निर्मल हो जाता है । ज्ञानयोग (१) श्रेष्ठ‒द्रव्यमय (आहुति देकर किये जानेवाले) यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है‒‘श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः’
(४ । ३३) । कारण कि द्रव्यमय
यज्ञमें पदार्थों और क्रियाओंकी मुख्यता रहती है, जबकि ज्ञानयज्ञमें विवेक-विचारकी
मुख्यता रहती है । विवेक-विचारमें मनुष्यकी जितनी स्वतन्त्रता है,
उतनी स्वतन्त्रता पदार्थों और क्रियाओंमें नहीं है । (२) सुगम‒ज्ञानयोगी साधक निर्गुण-निराकारका ध्यान करते-करते सम्पूर्ण पापोंसे रहित होकर
सुखपूर्वक परमात्माको प्राप्त हो जाता है‒‘सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते’
(६ । २८) । कारण कि उसमें देहाभिमान
नहीं रहता । (३) शीघ्र सिद्धि‒श्रद्धावान् सांख्ययोगी ज्ञानको प्राप्त होकर शीघ्र ही परम गतिको
प्राप्त हो जाता है‒‘ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति’
(४ । ३९) । कारण कि वह इन्द्रियोंको
वशमें किये हुए होता है । (४) पापोंका नाश–पापी-से-पापी भी ज्ञानरूपी नौकासे सम्पूर्ण पापोंसे तर जाता है‒‘सर्व
ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि’ (४ । ३६) । ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण पापोंको भस्म कर देती है‒‘ज्ञानाग्निः
सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते’ (४ । ३७) । कारण कि स्वरूपका बोध होनेसे शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
हो जाता है । (५) संतुष्टि‒अपने स्वरूपका ध्यान करनेवाला सांख्ययोगी अपने-आपमें संतुष्ट हो जाता है‒‘पश्यन्नात्मनि
तुष्यति’
(६ । २०) । कारण कि उसका जड़ता
अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि आदिके साथ सम्बन्ध नहीं रहता ।
(६) शान्तिकी प्राप्ति‒ज्ञानयोगी परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है‒‘ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति’
(४ । ३९) । कारण कि वह तत्त्वको
जान जाता है । फिर उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता । |