।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें तीनों योगोंकी महत्ता



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(६) शान्तिकी प्राप्‍ति‒कर्मयोगी शान्तिको प्राप्त हो जाता है‒स शान्तिमधिगच्छति’ (२ । ७१), शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्’ (५ । १२) । कारण कि उसमें कामना, ममता आदि नहीं रहते अर्थात् उसका संसारसे सम्बन्ध नहीं रहता ।

(७) समताकी प्राप्‍ति‒कर्मयोगी सिद्धि और असिद्धिमें सम हो जाता है‒समः सिद्धावसिद्धौ च’ (४ । २२) । कारण कि उसको कर्मकी सिद्धि-असिद्धि, पूर्ति-अपूर्तिमें हर्ष-शोक, राग-द्वेष नहीं होते ।

(८) ज्ञानकी प्राप्‍ति‒कर्मयोगसे सिद्ध हुए मनुष्यको अपने स्वरूपका ज्ञान (बोध) अपने-आप हो जाता है‒तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’ (४ । ३८) । कारण कि उसमें संसारका आकर्षण, जड़ता नहीं रहती । जड़ता न रहनेसे स्वतः सिद्ध स्वरूप रह जाता है ।

(९) प्रसन्‍नता (स्वच्छता)-की प्राप्‍ति‒कर्मयोगी अन्तःकरणकी प्रसन्‍नताको प्राप्त हो जाता है‒प्रसादमधिगच्छति’ (२ । ६४) । कारण कि राग-द्वेषपूर्वक विषयोंका सेवन करनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति, हलचल होती है; परन्तु कर्मयोगी साधक राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करता है; अतः उसका अन्तःकरण स्वच्छ, निर्मल हो जाता है ।

ज्ञानयोग

(१) श्रेष्ठ‒द्रव्यमय (आहुति देकर किये जानेवाले) यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है‒श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः’ (४ । ३३) । कारण कि द्रव्यमय यज्ञमें पदार्थों और क्रियाओंकी मुख्यता रहती है, जबकि ज्ञानयज्ञमें विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है । विवेक-विचारमें मनुष्यकी जितनी स्वतन्त्रता है, उतनी स्वतन्त्रता पदार्थों और क्रियाओंमें नहीं है ।

(२) सुगम‒ज्ञानयोगी साधक निर्गुण-निराकारका ध्यान करते-करते सम्पूर्ण पापोंसे रहित होकर सुखपूर्वक परमात्माको प्राप्त हो जाता है‒सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते’ (६ । २८) । कारण कि उसमें देहाभिमान नहीं रहता ।

(३) शीघ्र सिद्धि‒श्रद्धावान् सांख्ययोगी ज्ञानको प्राप्त होकर शीघ्र ही परम गतिको प्राप्त हो जाता है‒ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति’ (४ । ३९) । कारण कि वह इन्द्रियोंको वशमें किये हुए होता है ।

(४) पापोंका नाश–पापी-से-पापी भी ज्ञानरूपी नौकासे सम्पूर्ण पापोंसे तर जाता है‒सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि’ (४ । ३६) । ज्ञानरूपी अग्‍नि सम्पूर्ण पापोंको भस्म कर देती है‒ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते’ (४ । ३७) । कारण कि स्वरूपका बोध होनेसे शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।

(५) संतुष्टि‒अपने स्वरूपका ध्यान करनेवाला सांख्ययोगी अपने-आपमें संतुष्ट हो जाता है‒पश्यन्नात्मनि तुष्यति’ (६ । २०) । कारण कि उसका जड़ता अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि आदिके साथ सम्बन्ध नहीं रहता ।

(६) शान्तिकी प्राप्‍ति‒ज्ञानयोगी परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है‒‘ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति’ (४ । ३९) । कारण कि वह तत्त्वको जान जाता है । फिर उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ।