।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें तीनों योगोंकी महत्ता



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(७) समताकी प्राप्‍ति‒जो सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपनेको और अपनेमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखता है, वह समदर्शी हो जाता है अर्थात् उसे समताकी प्राप्‍ति हो जाती है‒सर्वत्र समदर्शनः’ (६ । २९) । वह सुख-दुःखमें सम हो जाता है‒समदुःखसुखः’ (१४ । २४) । कारण कि उसकी तत्त्वसे अभिन्‍नता हो जाती है ।

(८) ज्ञानकी प्राप्‍ति‒क्षेत्र अलग है और क्षेत्रज्ञ अलग है‒ऐसा विवेक होनेपर सांख्ययोगीको स्वरूपका बोध अर्थात् परमतत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है‒‘यान्ति ते परम्’ (१३ । ३४) । कारण कि उसका प्रकृति और उसके कार्यसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।

(९) प्रसन्‍नता (स्वच्छता)-की प्राप्‍ति‒सांख्ययोगी अन्तःकरणकी प्रसन्‍नताको प्राप्त हो जाता है‒‘ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा’ (१८ । ५४) । कारण कि वह अहंकार, कामना आदिसे रहित होता है ।

भक्तियोग

(१) श्रेष्ठ‒भगवान्‌में तल्लीन अन्तःकरणवाला श्रद्धावान् भक्त सम्पूर्ण योगियोंमें श्रेष्ठ है‒‘स मे युक्ततमो मतः’ (६ । ४७) । कारण कि उसके श्रद्धा-विश्वास भगवान्‌पर ही होते हैं, उसका आश्रय भगवान्‌ ही रहते हैं । सांख्ययोगी और भक्तियोगी‒इन दोनोंमें भक्तियोगी श्रेष्ठ है‒‘ते मे युक्ततमा मताः’ (१२ । २) । कारण कि वह नित्य-निरन्तर भगवान्‌में ही लगा रहता है ।

(२) सुगम‒भक्त श्रद्धा-भक्तिसे जो पत्र, पुष्प, फल, जल आदि भगवान्‌को अर्पण करता है, उसको भगवान्‌ खा लेते हैं । इतना ही नहीं, किसीके पास अगर पत्र, पुष्प आदि भी न हो तो वह जो कुछ करता है, उसे भगवान्‌के अर्पण करनेसे वह सम्पूर्ण बन्धनोंसे मुक्‍त होकर भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है‒पत्रं पुष्पं फलं तोयं......मामुपैष्यसि’ (९ । २६२८) । कारण कि भक्तमें भगवान्‌को अर्पण करनेका भाव रहता है, और भगवान्‌ भी भावग्राही हैं ।

(३) शीघ्र-सिद्धि‒भगवान्‌में लगे हुए चित्तवाले भक्तका उद्धार भगवान्‌ बहुत जल्दी कर देते हैं‒तेषामहं समृद्धर्ता......नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्’ (१२ । ७) । कारण कि वह केवल भगवान्‌के ही परायण रहता है; अतः उसका उद्धार करनेकी जिम्मेवारी भगवान्‌पर आ जाती है ।

(४) पापोंका नाश‒भगवान्‌ अपने शरणागत भक्तको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्‍त कर देते हैं‒अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’ (१८ । ६६) । कारण कि सर्वथा शरणागत भक्तकी सम्पूर्ण जिम्मेवारी भगवान्‌पर ही आ जाती है ।

(५) संतुष्टि‒भगवान्‌में मन लगानेपर भक्त संतुष्ट हो जाता है‒तुष्यन्ति’ (१० । ९) । कारण कि भगवान्‌में ज्यों-ज्यों मन लगता है, त्यों-त्यों उसे संतोष होता है कि मेरा समय भगवान्‌के चिन्तनमें लग रहा है । सिद्धावस्थामें वह संतोष भक्तमें स्वतः रहता है‒संतुष्टः सततं योगी’ (१२ । १४) । कारण कि उसको भगवत्प्राप्ति हो गयी होती है ।

(६) शान्तिकी प्राप्‍ति‒भक्त परमशान्तिको प्राप्त हो जाता है‒शान्तिं निर्वाणपरमाम्’ (६ । १५),शश्वच्छान्तिं निगच्छति’ (९ । ३१) । कारण कि उसका आश्रय केवल भगवान्‌ ही रहते हैं ।

(७) समताकी प्राप्‍तिभगवान्‌ अपने भक्तको वह समता देते हैं, जिससे वह भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है‒‘ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते’ (१० । १०) । कारण कि वे केवल भगवान्‌में ही लगे रहते हैं, भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं चाहते ।

(८) ज्ञानकी प्राप्‍ति‒भगवान्‌ स्वयं अपने भक्तके अज्ञानका नाश करते हैं‒‘तेषामेवानुकम्पार्थ......ज्ञानदीपेन भास्वता’ (१० । ११) । कारण कि भक्त केवल भगवान्‌में ही लगा रहता है, भगवान्‌के सिवाय कुछ चाहता ही नहीं । अतः भगवान्‌ अपनी ओरसे ही उसके अज्ञानका नाश करके भगवत्तत्त्वका ज्ञान करा देते हैं ।

(९) प्रसन्‍नता (स्वच्छता)-की प्राप्‍ति‒भक्तका अन्तःकरण प्रसन्‍न, स्वच्छ हो जाता है‒प्रशान्तात्मा’ (६ । १४) । कारण कि वह भगवान्‌का ध्यान करता रहता है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !