Listen (७) समताकी प्राप्ति‒जो सम्पूर्ण
प्राणियोंमें अपनेको और अपनेमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखता है,
वह समदर्शी हो जाता है अर्थात् उसे समताकी प्राप्ति हो जाती है‒‘सर्वत्र समदर्शनः’ (६ । २९) । वह सुख-दुःखमें सम हो जाता है‒‘समदुःखसुखः’ (१४ । २४) ।
कारण कि उसकी तत्त्वसे अभिन्नता हो जाती है । (८) ज्ञानकी प्राप्ति‒क्षेत्र अलग
है और क्षेत्रज्ञ अलग है‒ऐसा विवेक होनेपर सांख्ययोगीको स्वरूपका बोध अर्थात् परमतत्त्वकी
प्राप्ति हो जाती है‒‘यान्ति ते परम्’
(१३ । ३४) । कारण कि उसका प्रकृति और उसके कार्यसे सम्बन्ध-विच्छेद हो
जाता है । (९) प्रसन्नता (स्वच्छता)-की प्राप्ति‒सांख्ययोगी
अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त हो जाता है‒‘ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा’
(१८ । ५४) । कारण कि वह अहंकार, कामना आदिसे रहित
होता है । भक्तियोग (१) श्रेष्ठ‒भगवान्में तल्लीन
अन्तःकरणवाला श्रद्धावान् भक्त सम्पूर्ण योगियोंमें श्रेष्ठ है‒‘स मे युक्ततमो मतः’ (६
। ४७) । कारण कि उसके श्रद्धा-विश्वास भगवान्पर ही होते हैं, उसका आश्रय भगवान् ही रहते हैं । सांख्ययोगी और भक्तियोगी‒इन दोनोंमें भक्तियोगी
श्रेष्ठ है‒‘ते मे युक्ततमा मताः’ (१२ । २) । कारण कि वह नित्य-निरन्तर भगवान्में ही लगा रहता है । (२) सुगम‒भक्त श्रद्धा-भक्तिसे
जो पत्र,
पुष्प, फल, जल आदि भगवान्को
अर्पण करता है, उसको भगवान् खा लेते हैं । इतना ही नहीं,
किसीके पास अगर पत्र, पुष्प आदि भी न हो तो वह
जो कुछ करता है, उसे भगवान्के अर्पण करनेसे वह सम्पूर्ण बन्धनोंसे
मुक्त होकर भगवान्को प्राप्त हो जाता है‒‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं......मामुपैष्यसि’ (९ ।
२६‒२८)
। कारण कि भक्तमें भगवान्को अर्पण करनेका भाव रहता है,
और भगवान् भी भावग्राही हैं । (३) शीघ्र-सिद्धि‒भगवान्में लगे हुए
चित्तवाले भक्तका उद्धार भगवान् बहुत जल्दी कर देते हैं‒‘तेषामहं समृद्धर्ता......नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्’
(१२ । ७) । कारण कि वह केवल भगवान्के ही परायण रहता है;
अतः उसका उद्धार करनेकी जिम्मेवारी भगवान्पर आ जाती है । (४) पापोंका नाश‒भगवान्
अपने शरणागत भक्तको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं‒‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’
(१८ । ६६) । कारण कि सर्वथा शरणागत भक्तकी सम्पूर्ण जिम्मेवारी भगवान्पर
ही आ जाती है । (५) संतुष्टि‒भगवान्में मन लगानेपर
भक्त संतुष्ट हो जाता है‒‘तुष्यन्ति’
(१० । ९) । कारण कि भगवान्में ज्यों-ज्यों मन लगता है, त्यों-त्यों उसे संतोष होता है कि मेरा समय भगवान्के चिन्तनमें लग रहा है
। सिद्धावस्थामें वह संतोष भक्तमें स्वतः रहता है‒‘संतुष्टः सततं योगी’ (१२ । १४) । कारण कि उसको
भगवत्प्राप्ति हो गयी होती है । (६) शान्तिकी प्राप्ति‒भक्त
परमशान्तिको प्राप्त हो जाता है‒‘शान्तिं निर्वाणपरमाम्’ (६ । १५), ‘शश्वच्छान्तिं
निगच्छति’ (९ । ३१) । कारण कि उसका आश्रय केवल
भगवान् ही रहते हैं । (७) समताकी प्राप्ति‒भगवान्
अपने भक्तको वह समता देते हैं, जिससे वह भगवान्को
प्राप्त हो जाता है‒‘ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति
ते’ (१० । १०) । कारण कि वे केवल भगवान्में ही लगे रहते
हैं, भगवान्के सिवाय कुछ भी नहीं चाहते । (८) ज्ञानकी प्राप्ति‒भगवान् स्वयं
अपने भक्तके अज्ञानका नाश करते हैं‒‘तेषामेवानुकम्पार्थ......ज्ञानदीपेन
भास्वता’ (१० । ११) । कारण कि
भक्त केवल भगवान्में ही लगा रहता है, भगवान्के सिवाय कुछ चाहता
ही नहीं । अतः भगवान् अपनी ओरसे ही उसके अज्ञानका नाश करके भगवत्तत्त्वका ज्ञान करा
देते हैं । (९) प्रसन्नता (स्वच्छता)-की प्राप्ति‒भक्तका
अन्तःकरण प्रसन्न, स्वच्छ हो जाता है‒‘प्रशान्तात्मा’ (६ ।
१४) । कारण कि वह भगवान्का ध्यान करता रहता है ।
नारायण
! नारायण ! नारायण ! |