Listen ‘आनन्द’‒ सुख भी दो प्रकारका होता है‒पारमार्थिक और लौकिक । पारमार्थिक
सुख परमात्मस्वरूप है । यह सुख तीनों गुणोंसे अतीत है । यह सुख सांसारिक सुख-दुःखसे
रहित है । इसी सुखको गीतामें अक्षय सुख, आत्यन्तिक सुख और अत्यन्त सुख कहा गया है (५ । २१;
६ । २१, २८) । परन्तु लौकिक सुख नाशवान् और तीनों गुणोंवाला
है । राजस और तामस सुख तो लौकिक हैं ही, उत्पन्न होनेवाला होनेसे सात्त्विक सुख भी लौकिक ही है । गीतामें
लौकिक सुखका वर्णन प्रायः दुःखके साथ ही हुआ है; जैसे‒‘शीतोष्णसुखदुःखदा:’,
‘समदुःखसुखम्’ (२ । १४‒१५); ‘सुखेषु
विगतस्पृहः’ (२ । ५६); ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु’
(६ । ७); ‘समदुःखसुखः’,
‘शीतोष्णसुखदुःखेषु’ (१२ । १३, १८); ‘समदुःखसुखः’ (१४ ।
२४) ‘सुखदुःखसंज्ञैः’
(१५ ।
५); आदि । तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व भी सच्चिदानन्द (सत्,
चित् और आनन्द) है और संसार भी सच्चिदानन्द है;
परन्तु इन दोनोंके सच्चिदानन्दपनेमें अन्तर है । परमात्मतत्त्वका
सच्चिदानन्दपना सबके लिये अनुभूत नहीं है । मनुष्य जब साधन करता है,
सत्संग करता है, परमात्माकी तरफ चलता है, तब परमात्माका सच्चिदानन्दपना उसके अनुभवमें आने लगता है ।
पारमार्थिक मार्गमें वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों उसमें विलक्षणता आती ही रहती है । परन्तु संसारका
जो सच्चिदानन्दपना है, वह सबके अनुभवसिद्ध है । संसारकी जो सत्ता (‘हैं’-पना) है,
ज्ञान (समझ) है, सुख है, वे सभी उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । वे पहले भी नहीं थे
और पीछे भी नहीं रहेंगे तथा जिस समय उनका भान होता है,
उस समय भी वे प्रतिक्षण नष्ट हो रहे है,
अभावमें जा रहे हैं । अतः बुद्धिमान मनुष्यको चाहिये कि वह उत्पन्न
और नष्ट होनेवाले सांसारिक सत्-चित्-आनन्दमें न फँसे । परमात्माको ‘सत्’ कहनेका तात्पर्य है कि वह परमात्मा असत्से विलक्षण है;
वहाँ असत् है ही नहीं । जैसे उत्पन्न होनेवाली वस्तुको अंगुलिनिर्देश
करके बता सकते हैं; ऐसे उस परमात्माको अंगुलिनिर्देश करके नहीं बता सकते । उस परमात्माको ‘चित्’ कहा जाता है, पर यह ‘चित्’ सांसारिक प्रकाश-अप्रकाश, ज्ञान-अज्ञान,
चेतन-जड़की तरह नहीं है । कारण कि सांसारिक प्रकाश अप्रकाशकी
अपेक्षासे है अर्थात् जहाँ नेत्र काम करते है, वह प्रकाश है और जहाँ नेत्र काम नहीं करते,
वह अप्रकाश है । सांसारिक ज्ञान अज्ञानकी अपेक्षासे है अर्थात्
जहाँ बुद्धि काम करती है, वह ज्ञान है और जहाँ बुद्धि काम नहीं करती,
वह अज्ञान है । सांसारिक चेतन जड़की अपेक्षासे है । परन्तु परमात्मा
इस तरह अप्रकाश, अज्ञान और जड़की अपेक्षा ‘चित्’ नहीं है; वहाँ अप्रकाश, अज्ञान और जड़ताका अत्यन्त अभाव है । तात्पर्य है कि उस परमात्मामें
अप्रकाश,
अज्ञान और जड़ता है ही नहीं । संसारमें एक सुख होता है और एक दुःख होता है । एक शान्ति होती
है और एक अशान्ति होती है । ये सभी द्वन्द्व हैं । पारमार्थिक सुख (आनन्द)-में दुःख-अशान्तिका
अत्यन्त अभाव है । वह सुख सांसारिक सुख-शान्तिसे सर्वथा अतीत है । तात्पर्य है कि पारमार्थिक
सत्, चित् और आनन्द‒ये तीनों ही द्वन्द्वातीत हैं ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |