Listen द्वावेव
सच्चिदानन्दौ प्रोक्तौ जगज्जनार्दनौ । द्वयोरन्तरमेतत्तु सदाऽस्थिरं सदा स्थिरः ॥ गीतामें सत्, चित् और आनन्द‒इन तीनोंका वर्णन आता है । परन्तु वेदान्त-ग्रन्थोंमें
इन तीनोंका जैसा क्रमसे वर्णन आता है, वैसा क्रमसे वर्णन गीतामें नहीं आता;
क्योंकि गीता एक सिद्धान्त-ग्रन्थ है, प्रक्रिया-ग्रन्थ नहीं
है । ‘सत्’ शब्द सत्ताका वाचक, ‘चित्’ शब्द ज्ञानका वाचक और ‘आनन्द’
शब्द सर्वोपरि सुखका वाचक है । ‘सत्’‒ सत्ता दो प्रकारकी होती है‒स्वतःसिद्ध अविकारी सत्ता और उत्पन्न
होनेवाली विकारी सत्ता । अविकारी सत्ता परमात्मा एवं जीवात्माकी है और विकारी सत्ता
संसार एवं शरीरकी है । अविकारी सत्ताका कभी अभाव नहीं होता–‘नाभावो विद्यते सतः’
(२ । १६) और विकारी सत्ताका कभी भाव नहीं होता–‘नासतो विद्यते
भावः’ (२ । १६) । उत्पन्न होना, ‘है’-रूपसे दीखना, बढ़ना, परिवर्तित होना,
क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार अविकारी सत्तामें नहीं
होते अर्थात् वह सत्ता इन छः भावविकारोंसे रहित है । ये छः भावविकार विकारी सत्तामें
होते हैं; जैसे‒संसार एवं शरीर उत्पन्न होता है, उत्पन्न होनेके बाद ‘है’-रूपसे दीखता है, बढ़ता है, परिवर्तित होता है अर्थात् एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको
प्राप्त होता हैं, क्षीण होता है और नष्ट हो जाता है । गीतामें उपर्युक्त दोनों सत्ताओंका वर्णन एक साथ ही हुआ है;
जैसे‒गतिशील प्राणियोंमें जो गतिरहित है, विषम प्राणियोंमें
जो समरूपसे स्थित है और नष्ट होनेवाले प्राणियोंमें जो विनाशरहित है (१३ । २७) । सम्पूर्ण
विभक्त प्राणियोंमें जो विभागरहित है (१३ । १६) । जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी है,
और जो सम्पूर्ण प्रणियोंमें ओतप्रोत है (८ । २२) आदि । ‘चित्’‒ ज्ञान दो प्रकारका होता है‒करण-निरपेक्ष और करण-सापेक्ष । परमात्मा
और अपने स्वरूपका ज्ञान (बोध) करण-निरपेक्ष है; क्योंकि वह ज्ञान स्वयंसे ही होता है,
इन्द्रियाँ, मन आदि करणोंसे नहीं । संसार और शरीरका ज्ञान करण-सापेक्ष है;
क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियाँ, मन आदि करणोंसे होता है । करण-निरपेक्ष ज्ञान सबका प्रकाशक है
। इसी ज्ञानसे सबको प्रकाश मिलता है । इसीसे मन, बुद्धि,
इन्द्रियाँ आदि सब प्रकाशित होते हैं । परन्तु करण-सापेक्ष ज्ञान
प्रकाश्य है ।
गीतामें उपर्युक्त दोनों ज्ञानोंका वर्णन भी प्रायः एक साथ ही
हुआ है;
जैसे‒वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियोंका ज्योति है अर्थात् सम्पूर्ण
ज्ञानोंका ज्ञान है (१३ । १७) । वह परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी
सम्पूर्ण विषयोंको प्रकाशित करता है (१३ । १४) । उस परमपदरूप परमात्माको सूर्य (नेत्र),
चन्द्रमा (मन) और अग्नि (वाणी) प्रकाशित नहीं करते (१५ । ६);
किन्तु उससे ये सूर्य (नेत्र) आदि प्रकाशित होते हैं (१५ । १२)
आदि । |