।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 कार्तिक कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें सत्, चित् और आनन्द



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द्वावेव सच्चिदानन्दौ प्रोक्तौ जगज्जनार्दनौ ।

द्वयोरन्तरमेतत्तु सदाऽस्थिरं सदा स्थिरः ॥

गीतामें सत्, चित् और आनन्द‒इन तीनोंका वर्णन आता है । परन्तु वेदान्त-ग्रन्थोंमें इन तीनोंका जैसा क्रमसे वर्णन आता है, वैसा क्रमसे वर्णन गीतामें नहीं आता; क्योंकि गीता एक सिद्धान्त-ग्रन्थ है, प्रक्रिया-ग्रन्थ नहीं है ।

‘सत्’ शब्द सत्ताका वाचक, ‘चित्’ शब्द ज्ञानका वाचक और ‘आनन्द’ शब्द सर्वोपरि सुखका वाचक है ।

‘सत्’

सत्ता दो प्रकारकी होती है‒स्वतःसिद्ध अविकारी सत्ता और उत्पन्‍न होनेवाली विकारी सत्ता । अविकारी सत्ता परमात्मा एवं जीवात्माकी है और विकारी सत्ता संसार एवं शरीरकी है । अविकारी सत्ताका कभी अभाव नहीं होता–‘नाभावो विद्यते सतः’ (२ । १६) और विकारी सत्ताका कभी भाव नहीं होता–‘नासतो विद्यते भावः’ (२ । १६) ।

उत्पन्‍न होना, ‘है’-रूपसे दीखना, बढ़ना, परिवर्तित होना, क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार अविकारी सत्तामें नहीं होते अर्थात् वह सत्ता इन छः भावविकारोंसे रहित है । ये छः भावविकार विकारी सत्तामें होते हैं; जैसे‒संसार एवं शरीर उत्पन्‍न होता है, उत्पन्‍न होनेके बाद है’-रूपसे दीखता है, बढ़ता है, परिवर्तित होता है अर्थात् एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको प्राप्त होता हैं, क्षीण होता है और नष्ट हो जाता है ।

गीतामें उपर्युक्त दोनों सत्ताओंका वर्णन एक साथ ही हुआ है; जैसे‒गतिशील प्राणियोंमें जो गतिरहित है, विषम प्राणियोंमें जो समरूपसे स्थित है और नष्ट होनेवाले प्राणियोंमें जो विनाशरहित है (१३ । २७) । सम्पूर्ण विभक्त प्राणियोंमें जो विभागरहित है (१३ । १६) । जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी है, और जो सम्पूर्ण प्रणियोंमें ओतप्रोत है (८ । २२) आदि ।

‘चित्’‒

ज्ञान दो प्रकारका होता है‒करण-निरपेक्ष और करण-सापेक्ष । परमात्मा और अपने स्वरूपका ज्ञान (बोध) करण-निरपेक्ष है; क्योंकि वह ज्ञान स्वयंसे ही होता है, इन्द्रियाँ, मन आदि करणोंसे नहीं । संसार और शरीरका ज्ञान करण-सापेक्ष है; क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियाँ, मन आदि करणोंसे होता है । करण-निरपेक्ष ज्ञान सबका प्रकाशक है । इसी ज्ञानसे सबको प्रकाश मिलता है । इसीसे मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सब प्रकाशित होते हैं । परन्तु करण-सापेक्ष ज्ञान प्रकाश्य है ।

गीतामें उपर्युक्त दोनों ज्ञानोंका वर्णन भी प्रायः एक साथ ही हुआ है; जैसे‒वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियोंका ज्योति है अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानोंका ज्ञान है (१३ । १७) । वह परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी सम्पूर्ण विषयोंको प्रकाशित करता है (१३ । १४) । उस परमपदरूप परमात्माको सूर्य (नेत्र), चन्द्रमा (मन) और अग्‍नि (वाणी) प्रकाशित नहीं करते (१५ । ६); किन्तु उससे ये सूर्य (नेत्र) आदि प्रकाशित होते हैं (१५ । १२) आदि ।