Listen निर्गुण-निराकारके साथ जीवात्माकी
एकता‒जीवात्माको भी
सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त बताया गया है (२ । १७) और निर्गुण-निराकार परमात्माको भी
सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंमें व्याप्त बताया गया है (१३ । १६)
। जीवात्माको नित्य, सर्वव्यापी, स्थाणु, अचल, अव्यक्त और अचिन्त्य (२ । २४-२५), अप्रमेय (२ । १८) तथा कूटस्थ
(१५ । १६) कहा गया है और निगुण-निराकार परमात्माको अनिर्देश्य,
अव्यक्त, सर्वव्यापी, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव कहा गया है (१२ । ३) । जीवात्माको भी ‘परमात्मा’ कहा गया है (१३ । २२) और निगुण-निराकार परमात्माको भी ‘परमात्मा’ कहा गया है (६ । ७) । जीवात्माको भी ‘निर्गुण’ कहा गया है (१३ । ३१) और निगुण-निराकार परमात्माको भी ‘निर्गुण’ कहा गया है (१३ । १४) । सगुण-साकारके साथ जीवात्माकी
एकता‒जीवात्माको भी
‘महेश्वर’ कहा गया है (१३ । २२) और सगुण-साकार परमात्माको भी ‘महेश्वर’
कहा गया है (५ । २९; ९ । ११; १० । ३) । तेरहवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने ‘तू सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको ही जान’‒ऐसा कहकर जीवात्माकी अपने (सगुण-साकारके) साथ एकता बतायी है
। सब स्वरूपोंके साथ जीवात्माकी एकता बतानेका तात्पर्य यह है कि
इस जीवात्माकी परमात्माके साथ एकता स्वतः है; परन्तु शरीरके साथ एकता माननेसे परमात्माके साथ एकताका अनुभव
नहीं होता । अतः साधकको चाहिये कि वह शरीरके साथ अपनी एकता न माने,
प्रत्युत परमात्माके साथ दृढतासे एकता मानकर साधन-परायण हो जाय,
तो फिर उस एकताका अनुभव हो जायगा । परमात्माके सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार‒इन तीनों रूपोंके साथ जीवात्माकी
तात्त्विक एकता और मानी हुई भिन्नता है । मानी हुई भिन्नता मिटनेपर तात्त्विक एकताका
स्वतः अनुभव हो जाता है । कई आचार्य जीवात्मा और परमात्मामें अभेद मानते हैं और कई
आचार्य भेद मानते हैं । भेद माननेवाले आचार्य भी तात्त्विक भेद नहीं मान सकते । हाँ,
वे ‘जीव अनेक है’‒इस दृष्टिसे जीवात्मा और परमात्मामें जातीय एकता कह देते हैं,
पर वास्तवमें यह तात्त्विक एकता ही है । कारण कि जाति वह होती
है,
जो एक होते हुए भी सबमें अलग-अलग रहे । चेतन-तत्त्व एक ही है
और उसमें कोई भेद (अनेकता) नहीं है, फिर उसमें जाति कैसे हो सकती है ?
अतः जीवात्मा और परमात्मामें तात्त्विक एकता है अर्थात् दोनों
तत्त्वरूपसे एक हैं । जीवात्मा अल्पज्ञ है और परमात्मा सर्वज्ञ है । जीवात्माकी अल्पज्ञता
अविद्याके कारण है और परमात्माकी सर्वज्ञता उनकी शक्ति प्रकृतिके कारण है । अगर जीवात्मा
अविद्याको मिटा दे तो उसकी अल्पज्ञता नहीं रहेगी और अगर परमात्मा अपनी शक्तिकी उपेक्षा
कर दे,
अपनी शक्तिकी तरफ दृष्टि न डाले तो परमात्माकी सर्वज्ञता नहीं
रहेगी । गीता शब्दमय ग्रन्थ है; अतः इस लेखमें गीताके शब्दोंको लेकर ही जीवात्मा और परमात्माकी
एकता की गयी है । वास्तवमें जीवात्मा और परमात्माकी तात्त्विक एकता किसी ग्रन्थ आदिको
लेकर नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध है । अगर साधक किसी ग्रन्थको महत्त्व देता है तो वह उस ग्रन्थमें
वर्णित तत्त्वके साथ अभिन्न होनेके लिये, उसमें अपनेको लीन करनेके लिये ही देता है । जब साधकमें सांसारिक
वस्तु, व्यक्ति आदिका महत्त्व नहीं रहता, तब तत्त्वसे मानी हुई भिन्नता मिट जाती है अर्थात् परमात्मासे
अपनी तात्त्विक एकताका अनुभव हो जाता है । तात्त्विक एकताका
अनुभव होनेपर व्यक्तित्वका अभिमान नहीं रहता;
क्योंकि वास्तविक तत्त्वमें व्यक्तित्वका अभिमान
नहीं है । लोगोंकी दृष्टिमें
तो वह योगी, ज्ञानी अथवा प्रेमी कहा जाता है, पर वास्तवमें वह योगी, ज्ञानी और प्रेमी नहीं रहता,
प्रत्युत वह योग-स्वरूप, ज्ञान-स्वरूप और प्रेम-स्वरूप हो जाता है । तत्त्वसे एक होनेके
बाद अर्थात् व्यक्तित्वका अभिमान मिटनेके बाद योग और योगी,
ज्ञान और ज्ञानी, प्रेम और प्रेमी‒ये दो भेद नहीं रहते । जबतक
दो भेद अर्थात् व्यक्तित्वका अभिमान है, तबतक तत्त्वके साथ एकता नहीं हुई ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |