Listen सगुण-निराकार,
निर्गुण-निराकार और सगुण-साकारकी एकता‒तेरहवें अध्यायके चौदहवें
श्लोकमें भगवान्ने इन तीनों रूपोंकी एकता की है; जैसे‒‘सर्वेन्द्रियगुणाभासम्’ अर्थात् वह तत्त्व सम्पूर्ण
इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करनेवाला होनेसे सगुण-निराकार है; ‘सर्वोन्द्रिविवर्जितम्, निर्गुणम्’ अर्थात् सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे
और सत्त्व-रज-तम तीनों गुणोंसे रहित होनेसे निर्गुण-निराकार है; ‘सर्वभृत्, गुणभोक्तृ’ अर्थात् सम्पूर्ण संसारका
भरण-पोषण करनेवाला तथा गुणोंका भोक्ता होनेसे सगुण-साकार है । इसके सिवाय और जगह भी
तीनों रूपोंकी एकता बतायी गयी है; जैसे‒उसीको अव्यक्त और अक्षर कहा गया है तथा उसीको परमगति कहा
गया है और जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते, वह मेरा परमधाम है (८ । २१) । ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय
मैं ही हूँ (१४ । २७) । अर्जुनने भी विराट्रूप भगवान्की
स्तुति करते हुए ग्यारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें तीनों रूपोंकी एकता की है; जैसे‒‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ अर्थात् आप ही जाननेयोग्य
परम (अक्षरब्रह्म) होनेसे निर्गुण-निराकार हैं; ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ अर्थात् आप ही इस विश्वके
परम आश्रय होनेसे सगुण-निराकार हैं; ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’ अर्थात् आप ही सनातनधर्मके रक्षक होनेसे
सगुण-साकार हैं । जीवात्माका स्वरूप‒गीतामें जीवात्माके स्वरूपके
विषयमें भगवान् कहते हैं कि यह जीव मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु मेरा अंश होकर भी यह इस जीवलोकमें
जीव बना हुआ है और प्रकृतिमें स्थित इन्द्रियाँ, मन आदिको अपना मानता है (१५ । ७) । प्रकृतिमें
स्थित होकर अर्थात् शरीरको ‘मैं’
और ‘मेरा’ मानकर यह सुख-दुःखका भोक्ता बन जाता है
। प्रकृतिजन्य गुणोंका,
विषयोंका संग ही इसे ऊँच-नीच
योनियोंमें ले जानेका कारण बनता है (१३ । २१) । यह जीवात्मा मेरी ‘परा प्रकृति’ है, पर इसने ‘अपरा प्रकृति’ (शरीर-संसार)-के साथ अहंता-ममता करके इस जगत्को धारण कर रखा
है (७ । ५) । अपरा प्रकृतिके साथ इस परा प्रकृतिका सम्बन्ध होनेसे ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी
उत्पत्ति होती है (७ । ६; १३ । २६) । इस जीवात्माका वर्णन दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक
देही,
शरीरी, नित्य, अविनाशी, अप्रेमय आदि शब्दोंसे किया गया है । तेरहवें अध्यायके पहले-दूसरे
श्लोकोंमें इसको ‘क्षेत्रज्ञ’ और उन्नीसवें श्लोकमें ‘पुरुष’ कहा गया है । इसीको पंद्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें ‘अक्षर’ कहा गया है । तात्पर्य यह है कि वास्तवमें यह परमात्माका अंश
होनेसे परमात्मस्वरूप ही है । रागके कारण प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध
जोड़नेसे ही यह जीव बना है । वास्तवमें यह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी न करता है और न
लिप्त होता है (१३ । ३१) । सगुण-निराकारके साथ जीवात्माकी
एकता‒जीवात्माके लिये
कहा गया है कि उसको तुम अविनाशी समझो, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है (२ । १७);
और सगुण-निराकार परमात्माके लिये कहा गया है कि जिसके अन्तर्गत
सम्पूर्ण प्राणी हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है,
वह परम पुरुष अनन्यभक्तिसे प्राप्त होता है (८ । २२) । मुझ अव्यक्तमूर्तिसे
यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है (९ । ४); जिस परमात्मासे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, उसका अपने कर्मोंके
द्वारा पूजन करना चाहिये (१८ । ४६) ।
जीवात्माको भी ‘ईश्वर’ कहा गया है (१५ । ८) और सगुण-निराकार परमात्माको भी ‘ईश्वर’ कहा गया है (१८ । ६१) । |