।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    कार्तिक कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें परमात्मा 

और जीवात्माका स्वरूप



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सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकारकी एकता‒तेरहवें अध्यायके चौदहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने इन तीनों रूपोंकी एकता की है; जैसे‒‘सर्वेन्द्रियगुणाभासम्’ अर्थात् वह तत्त्व सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करनेवाला होनेसे सगुण-निराकार है; ‘सर्वोन्द्रिविवर्जितम्, निर्गुणम्’ अर्थात् सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे और सत्त्व-रज-तम तीनों गुणोंसे रहित होनेसे निर्गुण-निराकार है; सर्वभृत्, गुणभोक्तृ’ अर्थात् सम्पूर्ण संसारका भरण-पोषण करनेवाला तथा गुणोंका भोक्ता होनेसे सगुण-साकार है । इसके सिवाय और जगह भी तीनों रूपोंकी एकता बतायी गयी है; जैसे‒उसीको अव्यक्त और अक्षर कहा गया है तथा उसीको परमगति कहा गया है और जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते, वह मेरा परमधाम है (८ । २१) । ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्‍वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय मैं ही हूँ (१४ । २७) ।

अर्जुनने भी विराट्‌रूप भगवान्‌की स्तुति करते हुए ग्यारहवें अध्यायके अठारहवें श्‍लोकमें तीनों रूपोंकी एकता की है; जैसे‒त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ अर्थात् आप ही जाननेयोग्य परम (अक्षरब्रह्म) होनेसे निर्गुण-निराकार हैं; त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ अर्थात् आप ही इस विश्वके परम आश्रय होनेसे सगुण-निराकार हैं; ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता अर्थात् आप ही सनातनधर्मके रक्षक होनेसे सगुण-साकार हैं ।

जीवात्माका स्वरूप‒गीतामें जीवात्माके स्वरूपके विषयमें भगवान्‌ कहते हैं कि यह जीव मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु मेरा अंश होकर भी यह इस जीवलोकमें जीव बना हुआ है और प्रकृतिमें स्थित इन्द्रियाँ, मन आदिको अपना मानता है (१५ । ७) । प्रकृतिमें स्थित होकर अर्थात् शरीरको मैंऔर मेरामानकर यह सुख-दुःखका भोक्ता बन जाता है । प्रकृतिजन्य गुणोंका, विषयोंका संग ही इसे ऊँच-नीच योनियोंमें ले जानेका कारण बनता है (१३ । २१) । यह जीवात्मा मेरी परा प्रकृतिहै, पर इसने अपरा प्रकृति’ (शरीर-संसार)-के साथ अहंता-ममता करके इस जगत्‌को धारण कर रखा है (७ । ५) । अपरा प्रकृतिके साथ इस परा प्रकृतिका सम्बन्ध होनेसे ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है (७ । ६; १३ । २६) ।

इस जीवात्माका वर्णन दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक देही, शरीरी, नित्य, अविनाशी, अप्रेमय आदि शब्दोंसे किया गया है । तेरहवें अध्यायके पहले-दूसरे श्‍लोकोंमें इसको क्षेत्रज्ञऔर उन्‍नीसवें श्‍लोकमें पुरुषकहा गया है । इसीको पंद्रहवें अध्यायके सोलहवें श्‍लोकमें अक्षरकहा गया है । तात्पर्य यह है कि वास्तवमें यह परमात्माका अंश होनेसे परमात्मस्वरूप ही है । रागके कारण प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही यह जीव बना है । वास्तवमें यह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है (१३ । ३१) ।

सगुण-निराकारके साथ जीवात्माकी एकता‒जीवात्माके लिये कहा गया है कि उसको तुम अविनाशी समझो, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्‍त है (२ । १७); और सगुण-निराकार परमात्माके लिये कहा गया है कि जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्‍त है, वह परम पुरुष अनन्यभक्तिसे प्राप्त होता है (८ । २२) । मुझ अव्यक्तमूर्तिसे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्‍त है (९ । ४); जिस परमात्मासे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्‍त है, उसका अपने कर्मोंके द्वारा पूजन करना चाहिये (१८ । ४६) ।

जीवात्माको भी ईश्‍वरकहा गया है (१५ । ८) और सगुण-निराकार परमात्माको भी ईश्‍वरकहा गया है (१८ । ६१) ।