।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    कार्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें परमात्मा 

और जीवात्माका स्वरूप



Listen



जीवात्मा परमात्मा च तत्त्वतोऽभिन्‍न एव च ।

लक्षणेषु द्वयोः साम्यं   कृष्णेन कथितं स्वयम् ॥

उपासनाकी दृष्टिसे परमात्माके तीन स्वरूप माने गये हैं‒सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार । सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य आदि दिव्य गुणोंसे युक्त और प्रकृति तथा उसके कार्य संसारमें परिपूर्णरूपसे व्यापक परमात्मा सगुण-निराकार कहलाते हैं । जब साधक परमात्माको दिव्य गुणोंसे रहित मानता है अर्थात् उसकी दृष्टि केवल निर्गुण परमात्माकी तरफ रहती है, तब परमात्माका वह स्वरूप निर्गुण-निराकार’ कहलाता है । सगुण-निराकार परमात्मा जब अपनी दिव्य प्रकृतिको अधिष्ठित करके अपनी योगमायासे लोगोंके सामने प्रकट हो जाते हैं, तब वे सगुण-साकार’ कहलाते हैं । इन तीनों स्वरूपोंका वर्णन गीतामें इस प्रकार हुआ है‒

(१) सगुण-निराकार‒अभ्यासयोगसे युक्त एकाग्र-मनसे परम पुरुषका चिन्तन करते हुए शरीर छोड़नेवाला मनुष्य उसीको प्राप्त होता है (८ । ८) । जो सर्वज्ञ, पुराण, सबका शासक, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, सबको धारण करनेवाला, अचिन्त्यरूप, अज्ञानसे अत्यन्त परे और सूर्यकी तरह प्रकाशस्वरूप है, उसका चिन्तन करते हुए अचल मन एवं योगबलके द्वारा प्राणोंको भृकुटीके मध्यमें लगाकर शरीर छोड़नेवाला मनुष्य उसी परम दिव्य पुरुषको प्राप्त हो जाता है (८ । ९-१०) । जिसके अन्तर्गत सब प्राणी हैं और जो सबमें व्याप्‍त है, उस परम पुरुषको अनन्यभक्तिसे प्राप्त करना चाहिये (८ । २२) । जिससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्‍त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है (१८ । ४६); आदि-आदि ।

(२) निर्गुण-निराकार‒जिसको वेदवेत्ता-लोग अक्षर कहते हैं, वीतराग यतिलोग जिसमें प्रवेश करते हैं और जिसको प्राप्त करनेकी इच्छासे ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, उस पदको मैं कहूँगा (८ । ११) । जो अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वव्यापी, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव तत्त्वकी उपासना करते हैं (१२ । ३); आदि-आदि ।

(३) सगुण-साकार‒अनन्यचित्तवाले जो भक्त नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करते हैं, उनके लिये मैं सुलभ हूँ (८ । १४) । महात्मालोग मेरेको प्राप्त होकर फिर दुःखालय और अशाश्‍वत पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होते (८ । १५) । दैवी प्रकृतिके आश्रित महात्मा-लोग मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अव्यय मानकर अनन्यचित्तसे मेरा भजन करते हैं (९ । १३) । जो भक्त भक्तिपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मुझे अर्पण करता है, प्रेमपूर्वक दिये हुए उस उपहारको मैं खा लेता हूँ (९ । २६) । अनन्यभक्तिसे ही मैं जाना जा सकता हूँ, देखा जा सकता हूँ और प्राप्त किया जा सकता हूँ (११ । ५४); आदि- आदि ।