।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें नवधा भक्ति



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कथिता नवधा भक्तिः   श्रवणादिस्वरूपिणी ।

यया कयाऽपि संयुक्तो हरिं प्राप्‍नोति मानवः ॥

श्रीमद्भागवतमें साधन-भक्तिके नौ प्रकार बताये गये हैं, जो नवधा भक्ति’ के नामसे प्रसिद्ध हैं[*] । गीतामें भगवान्‌ने इस नवधा भक्तिका क्रमपूर्वक वर्णन तो नहीं किया है, पर भगवान्‌की वाणी इतनी विलक्षण है कि इसमें अन्य साधनोंके साथ-साथ नवधा भक्तिका भी वर्णन आ गया है; जैसे‒

(१) श्रवण‒जो मनुष्य तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंसे सुनकर उपासना करते हैं, ऐसे वे सुननेके परायण हुए मनुष्य मृत्युको तर जाते हैं (१३ । २५) ।

(२) कीर्तन‒भक्त प्रेमपूर्वक मेरे नाम, रूप, लीला आदिका कीर्तन करते हैं (९ । १४); हे हृषीकेश ! आपके नाम, रूप आदिका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम)-को प्राप्त हो रहा है (११ । ३६) ।

(३) स्मरण‒जो मनुष्य अनन्यचित्त होकर नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं (८ । १४); महात्मा लोग अनन्य होकर मेरा स्मरण करते हुए मेरी उपासना करते हैं (९ । १३); तू निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा (१८ । ५७); मुझमें चित्तवाला होनेसे तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्‍नोंको तर जायगा (१८ । ५८) ।

(४) पादसेवन‒भक्त प्रेमपूर्वक मुझे नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं (९ । १४) ।

(५) अर्चन‒जिससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जो सबमें व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा अर्चन (पूजन) करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है (१८ । ४६); तू मेरा पूजन करनेवाला हो जा, फिर तू मेरेको ही प्राप्त होगा (९ । ३४; १८ । ६५) ।

(६) वन्दन‒तू मेरेको नमस्कार कर, फिर तू मेरेको ही प्राप्त होगा (९ । ३४; १८ । ६५); हे प्रभो आपको हजारों बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! (११ । ३९); हे सर्वात्मन् ! आपको आगेसे, पीछेसे, सब ओरसे ही नमस्कार हो (११ । ४०) हे प्रभो ! मैं शरीरसे लम्बा पड़कर आपको दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्‍न करना चाहता हूँ (११ । ४४) ।

(७) दास्य‒तू मेरा भक्त हो जा, फिर तू मुझे ही प्राप्त होगा (९ । ३४; १८ । ६५); हे कृष्ण ! मैं आपका शिष्य (दास) हूँ (२ । ७); हे पार्थ ! तू मेरा भक्त है (४ । ३) ।

(८) सख्य‒तू मेरा प्रिय सखा है (४ । ३); हे कृष्ण ! जैसे सखा सखाके अपमानको सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है, ऐसे ही आप मेरे द्वारा किये गये अपमानको सहनेमें समर्थ हैं (११ । ४४) ।

(९) आत्मनिवेदन‒उस आदिपुरुष परमात्माकी ही शरणमें हो जाना चाहिये (१५ । ४); तू सर्वभावसे उसी अन्तर्यामी परमात्माकी ही शरणमें चला जा (१८ । ६२); तू सब धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा (१८ । ६६) ।

इस प्रकार उपर्युक्त स्थलोंमें भगवान्‌ने साधन-भक्तिका वर्णन किया है; और ‘संसिद्धिं परमां गताः’ (८ । १५) ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (१८ । ५४) भक्तिं मयि परां कृत्वा’ (१८ । ६८)‒इन पदोंमें भगवान्‌ने साध्य (परा) भक्तिका वर्णन किया है ।[†]

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

    अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

(श्रीमद्भा ७ । ५ । २३)


[†] साधन-भक्तिसे साध्य-भक्ति प्राप्त होती है ।

‘भक्त्या संजातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा ११ । ३ । ३१)