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नवधा भक्तिः श्रवणादिस्वरूपिणी । यया कयाऽपि संयुक्तो हरिं प्राप्नोति मानवः ॥ श्रीमद्भागवतमें साधन-भक्तिके नौ प्रकार बताये गये हैं,
जो ‘नवधा भक्ति’ के नामसे प्रसिद्ध हैं[*] । गीतामें भगवान्ने इस नवधा भक्तिका क्रमपूर्वक वर्णन तो नहीं
किया है,
पर भगवान्की वाणी इतनी विलक्षण है कि इसमें अन्य साधनोंके साथ-साथ
नवधा भक्तिका भी वर्णन आ गया है; जैसे‒ (१) श्रवण‒जो मनुष्य तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंसे सुनकर उपासना
करते हैं,
ऐसे वे सुननेके परायण हुए मनुष्य मृत्युको तर जाते हैं (१३ ।
२५) । (२) कीर्तन‒भक्त प्रेमपूर्वक मेरे नाम, रूप,
लीला आदिका कीर्तन करते हैं (९ । १४);
हे हृषीकेश ! आपके नाम, रूप आदिका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण
जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम)-को प्राप्त हो रहा है (११ । ३६) । (३) स्मरण‒जो मनुष्य अनन्यचित्त होकर नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं
(८ । १४);
महात्मा लोग अनन्य होकर मेरा स्मरण करते हुए मेरी उपासना करते
हैं (९ । १३); तू निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा (१८ । ५७); मुझमें चित्तवाला होनेसे तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको
तर जायगा (१८ । ५८) । (४) पादसेवन‒भक्त प्रेमपूर्वक मुझे नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं
(९ । १४) । (५) अर्चन‒जिससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जो सबमें व्याप्त
है,
उस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा अर्चन (पूजन) करके मनुष्य
सिद्धिको प्राप्त हो जाता है (१८ । ४६); तू मेरा पूजन करनेवाला हो जा, फिर तू मेरेको ही प्राप्त होगा (९ । ३४;
१८ । ६५) । (६) वन्दन‒तू मेरेको नमस्कार कर, फिर तू मेरेको ही प्राप्त होगा (९ । ३४;
१८ । ६५); हे प्रभो आपको हजारों बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! और फिर
भी आपको बार-बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! (११ । ३९);
हे सर्वात्मन् ! आपको आगेसे, पीछेसे, सब ओरसे ही नमस्कार हो (११ । ४०) हे प्रभो ! मैं शरीरसे लम्बा
पड़कर आपको दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ (११ । ४४) । (७) दास्य‒तू मेरा भक्त हो जा, फिर तू मुझे ही प्राप्त होगा (९ । ३४;
१८ । ६५); हे कृष्ण ! मैं आपका शिष्य (दास) हूँ (२ । ७);
हे पार्थ ! तू मेरा भक्त है (४ । ३) । (८) सख्य‒तू मेरा प्रिय सखा है (४ । ३); हे कृष्ण ! जैसे सखा सखाके अपमानको
सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है, ऐसे ही आप मेरे द्वारा किये गये अपमानको सहनेमें समर्थ हैं
(११ । ४४) । (९) आत्मनिवेदन‒उस आदिपुरुष परमात्माकी ही शरणमें हो जाना चाहिये (१५ । ४);
तू सर्वभावसे उसी अन्तर्यामी परमात्माकी ही शरणमें चला जा (१८
। ६२);
तू सब धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा (१८ ।
६६) । इस प्रकार उपर्युक्त स्थलोंमें भगवान्ने साधन-भक्तिका वर्णन किया है; और ‘संसिद्धिं परमां गताः’ (८ । १५) ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (१८ । ५४) ‘भक्तिं मयि परां कृत्वा’ (१८ । ६८)‒इन पदोंमें भगवान्ने साध्य (परा) भक्तिका वर्णन किया है ।[†] नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[*] श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं
वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ (श्रीमद्भा॰ ७ । ५ । २३) [†] साधन-भक्तिसे साध्य-भक्ति प्राप्त होती है । ‘भक्त्या
संजातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा॰ ११ । ३ । ३१) |