Listen भक्तिर्द्विधाऽमन्यत
कृष्णगीता भक्तस्य भावेन च योग्यतायाः । कृष्णे रतिस्तस्य जपादिकर्म संसारकर्म प्रभुभक्तिभावः
॥ भगवान्ने गीतामें अपनी भक्तिके कई प्रकार बताते हुए भी मुख्यतासे
दो प्रकार बताये हैं‒ भक्तिका पहला प्रकार वह है, जिसमें क्रिया भी भगवद्विषयक है और भाव भी भगवद्-विषयक है;
जैसे‒जप-ध्यान, पाठ-पूजा, सत्संग-स्वाध्याय, भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थोंका
पठन-पाठन, श्रवण-मनन आदि सभी क्रियाएँ भगवत्सम्बन्धी हैं और उनको करनेमें भगवद्भाव
है ही (१० । ८-९) । भक्तिका दूसरा प्रकार वह है, जिसमें क्रिया तो सांसारिक है,
पर भाव भगवद्विषयक है; जैसे‒अपने-अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार कर्तव्यका पालन आदि ‘जीविका-सम्बन्धी’ क्रियाएँ हैं तथा खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना,
हँसना-बोलना आदि ‘शरीर-सम्बन्धी’ क्रियाएँ हैं, पर उनको करनेमें भाव भगवत्प्रसन्नताका‒भगवत्पूजनका
है (९ । २७; १८ । ४६; ३ । ३०) आदि । तात्पर्य यह हुआ कि भक्तिके उपर्युक्त दोनों प्रकारोंकी क्रियाओंमें
अन्तर‒भिन्नता है अर्थात् एककी क्रिया भगवत्सम्बन्धी है और दूसरेकी क्रिया संसार-सम्बन्धी
है,
पर दोनों ही क्रियाएँ भगवदर्थ होनेसे,
भगवान्की प्रसन्नताके लिये होनेसे दोनोंका भाव एक ही है ।
क्रियाएँ चाहे भगवत्सम्बन्धी हों, चाहे संसार-सम्बन्धी हों, पर सांसारिक आकर्षण न होनेसे, केवल भगवान्में आकर्षण होनेसे दोनों ही प्रकारकी भक्ति भगवान्में
एक हो जाती है । जैसे सबकी भूख एक होती है और भोजनके बाद तृप्ति भी एक होती है,
पर भोजनकी रुचि सबकी अलग-अलग होती है । ऐसे ही दोनों प्रकारके
भक्तोंका उद्देश्य आरम्भमें एक भगवत्प्राप्तिका ही रहनेसे अन्तमें प्राप्ति भी दोनोंको
एक ही होती है, पर साधनोंमें अन्तर रहता है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |