।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    कार्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें द्विविधा भक्ति



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भक्तिर्द्विधाऽमन्यत कृष्णगीता भक्तस्य भावेन च योग्यतायाः ।

कृष्णे  रतिस्तस्य   जपादिकर्म   संसारकर्म   प्रभुभक्तिभावः ॥

भगवान्‌ने गीतामें अपनी भक्तिके कई प्रकार बताते हुए भी मुख्यतासे दो प्रकार बताये हैं‒

भक्तिका पहला प्रकार वह है, जिसमें क्रिया भी भगवद्विषयक है और भाव भी भगवद्-विषयक है; जैसे‒जप-ध्यान, पाठ-पूजा, सत्संग-स्वाध्याय, भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थोंका पठन-पाठन, श्रवण-मनन आदि सभी क्रियाएँ भगवत्सम्बन्धी हैं और उनको करनेमें भगवद्भाव है ही (१० । ८-९) ।

भक्तिका दूसरा प्रकार वह है, जिसमें क्रिया तो सांसारिक है, पर भाव भगवद्‍विषयक है; जैसे‒अपने-अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार कर्तव्यका पालन आदि जीविका-सम्बन्धी’ क्रियाएँ हैं तथा खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना, हँसना-बोलना आदि शरीर-सम्बन्धी’ क्रियाएँ हैं, पर उनको करनेमें भाव भगवत्‌प्रसन्‍नताका‒भगवत्पूजनका है (९ । २७; १८ । ४६; ३ । ३०) आदि ।

तात्पर्य यह हुआ कि भक्तिके उपर्युक्त दोनों प्रकारोंकी क्रियाओंमें अन्तर‒भिन्‍नता है अर्थात् एककी क्रिया भगवत्सम्बन्धी है और दूसरेकी क्रिया संसार-सम्बन्धी है, पर दोनों ही क्रियाएँ भगवदर्थ होनेसे, भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये होनेसे दोनोंका भाव एक ही है । क्रियाएँ चाहे भगवत्सम्बन्धी हों, चाहे संसार-सम्बन्धी हों, पर सांसारिक आकर्षण न होनेसे, केवल भगवान्‌में आकर्षण होनेसे दोनों ही प्रकारकी भक्ति भगवान्‌में एक हो जाती है । जैसे सबकी भूख एक होती है और भोजनके बाद तृप्‍ति भी एक होती है, पर भोजनकी रुचि सबकी अलग-अलग होती है । ऐसे ही दोनों प्रकारके भक्तोंका उद्देश्य आरम्भमें एक भगवत्प्राप्‍तिका ही रहनेसे अन्तमें प्राप्‍ति भी दोनोंको एक ही होती है, पर साधनोंमें अन्तर रहता है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !