Listen कर्तुं
तथान्यथाकर्तुं स्वतन्त्रो हीश्वरः सदा । प्रकृतेर्वशतात्यागे जीवात्मा
स्ववशः सदा ॥ ‘स्व’ नाम स्वयंका है, ‘पर’ नाम दूसरेका है और ‘तन्त्र’ नाम अधीनका है । अतः जो स्वयंके अधीन होता है,
उसको ‘स्वतन्त्र’ (स्वाधीन) कहते हैं और जो दूसरोंके अधीन होता है,
उसको ‘परतन्त्र’ (पराधीन) कहते हैं । स्वतन्त्र और परतन्त्रके भावका नाम ही स्वतन्त्रता
और परतन्त्रता है । यद्यपि ईश्वरमें कर्तृत्व नहीं है और ईश्वरके अंश इस जीवात्मामें
भी तत्त्वतः कर्तृत्व नहीं है, तथापि ईश्वरमें प्रकृतिको लेकर कर्तृत्व है और जीवात्मामें
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदिको लेकर कर्तृत्व है । परन्तु इन दोनोंके कर्तृत्वमें
बड़ा भारी अन्तर है । ईश्वर तो प्रकृतिके अधिपति होते हुए ही प्रकृतिको अपने वशमें
करके स्वतन्त्रतासे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि कार्य करते हैं (४ । ६;
९ । ८) और यह जीवात्मा सुखासक्तिके कारण शरीर आदिके वशीभूत होकर
परतन्त्रतासे कार्य करता है (१५ । ७‒९) । जैसे भगवान् प्रकृतिको स्वीकार करने और न करनेमें स्वतन्त्र है और स्वीकार
करनेपर भी भगवान् परतन्त्र नहीं होते, ऐसे ही यह जीवात्मा भी शरीर आदिको ‘मैं-मेरा’
मानने और न माननेमें स्वतन्त्र है,
पर उनको ‘मैं-मेरा’ माननेपर जीवात्मा अपनी स्वतन्त्रताको भूलकर उनके अधीन (परतन्त्र)
हो जाता है । अतः परिणाममें यह जन्म-मरणके चक्करमें पड़ जाता है । जीवात्माकी यह परतन्त्रता स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत खुदकी बनायी हुई, खुदकी मानी हुई है । तात्पर्य यह है कि जब यह जीवात्मा स्वयं रागके कारण प्रकृतिके कार्य शरीरादिकी अधीनता स्वीकार कर लेता है, तब यह परतन्त्र हो जाता है; और जब यह प्रकृतिके कार्यकी अधीनताको अस्वीकार कर देता है, तब यह स्वतन्त्र हो जाता है अर्थात् अपनी स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताका, अपने स्वरूपका अनुभव कर लेता है । ऐसा अनुभव करनेमें वह स्वतन्त्र है । जब यह जीवात्मा अपनी स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताका अनुभव करके भी संतुष्ट नहीं होता, तब उसका भगवान्के चरणोंमें प्रेम हो जाता है । प्रेम होनेपर भगवान् उसके वशमें हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जब यह प्रकृतिके कार्यको छोड़कर भगवान्को स्वीकार कर लेता है, तब सर्वस्वतन्त्र भगवान् भी इसके अधीन हो जाते हैं । इतना ही नहीं, इसके अधीन होकर वे आनन्दका अनुभव करते हैं । इतनी स्वतन्त्रता भगवान्ने इस जीवात्माको दे रखी है । |