।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें ईश्‍वर और 

जीवात्माकी स्वतन्त्रता



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कर्तुं तथान्यथाकर्तुं स्वतन्त्रो हीश्‍वरः सदा ।

प्रकृतेर्वशतात्यागे जीवात्मा स्ववशः सदा ॥

‘स्व’ नाम स्वयंका है, ‘परनाम दूसरेका है और तन्त्रनाम अधीनका है । अतः जो स्वयंके अधीन होता है, उसको ‘स्वतन्त्र’ (स्वाधीन) कहते हैं और जो दूसरोंके अधीन होता है, उसको ‘परतन्त्र(पराधीन) कहते हैं । स्वतन्त्र और परतन्त्रके भावका नाम ही स्वतन्त्रता और परतन्त्रता है ।

यद्यपि ईश्‍वरमें कर्तृत्व नहीं है और ईश्‍वरके अंश इस जीवात्मामें भी तत्त्वतः कर्तृत्व नहीं है, तथापि ईश्‍वरमें प्रकृतिको लेकर कर्तृत्व है और जीवात्मामें शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदिको लेकर कर्तृत्व है । परन्तु इन दोनोंके कर्तृत्वमें बड़ा भारी अन्तर है । ईश्‍वर तो प्रकृतिके अधिपति होते हुए ही प्रकृतिको अपने वशमें करके स्वतन्त्रतासे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि कार्य करते हैं (४ । ६; ९ । ८) और यह जीवात्मा सुखासक्तिके कारण शरीर आदिके वशीभूत होकर परतन्त्रतासे कार्य करता है (१५ । ७९) । जैसे भगवान्‌ प्रकृतिको स्वीकार करने और न करनेमें स्वतन्त्र है और स्वीकार करनेपर भी भगवान्‌ परतन्त्र नहीं होते, ऐसे ही यह जीवात्मा भी शरीर आदिको ‘मैं-मेरामानने और न माननेमें स्वतन्त्र है, पर उनको मैं-मेरा’ माननेपर जीवात्मा अपनी स्वतन्त्रताको भूलकर उनके अधीन (परतन्त्र) हो जाता है । अतः परिणाममें यह जन्म-मरणके चक्‍करमें पड़ जाता है ।

जीवात्माकी यह परतन्त्रता स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत खुदकी बनायी हुई, खुदकी मानी हुई है । तात्पर्य यह है कि जब यह जीवात्मा स्वयं रागके कारण प्रकृतिके कार्य शरीरादिकी अधीनता स्वीकार कर लेता है, तब यह परतन्त्र हो जाता है; और जब यह प्रकृतिके कार्यकी अधीनताको अस्वीकार कर देता है, तब यह स्वतन्त्र हो जाता है अर्थात् अपनी स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताका, अपने स्वरूपका अनुभव कर लेता है । ऐसा अनुभव करनेमें वह स्वतन्त्र है ।

जब यह जीवात्मा अपनी स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताका अनुभव करके भी संतुष्ट नहीं होता, तब उसका भगवान्‌के चरणोंमें प्रेम हो जाता है । प्रेम होनेपर भगवान्‌ उसके वशमें हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जब यह प्रकृतिके कार्यको छोड़कर भगवान्‌को स्वीकार कर लेता है, तब सर्वस्वतन्त्र भगवान्‌ भी इसके अधीन हो जाते हैं । इतना ही नहीं, इसके अधीन होकर वे आनन्दका अनुभव करते हैं । इतनी स्वतन्त्रता भगवान्‌ने इस जीवात्माको दे रखी है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !