Listen प्रकृतिसे उत्पन्न गुणोंके द्वारा ही सबकी रचना
की गयी है । इसलिये इस त्रिलोकीमें गुणोंसे रहित कोई भी वस्तु और प्राणी नहीं है ।
स्वभावसे उत्पन्न हुए गुणोंके द्वारा ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन
चारों वर्णोंके कर्मोंका विभाग किया गया है (१८ । ४०-४१) । [*] अठारहवें अध्यायके सैतालीसवें श्लोकमें आया ‘विगुणः’ शब्द भी तीनों गुणोंसे रहितका वाचक नहीं है,
प्रत्युत सद्गुण-सदाचारोंकी कमीका वाचक है ।[†] ‒इस प्रकार गीतामें भाव, गुणोंकी वृत्तियाँ, श्रद्धा, पूजन, भोजन, यज्ञ, तप, दान, त्याग, ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख‒इन
पन्द्रह रूपोंमें गुणोंका वर्णन हुआ है । उपर्युक्त तीनों गुणोंमेंसे सत्त्वगुणका तात्पर्य प्रकृति और प्रकृतिके
कार्यसे सम्बन्ध-विच्छेद करानेमें है, रजोगुणका तात्पर्य प्राकृत पदार्थोंके साथ सम्बन्ध दृढ़ करनेमें है और तमोगुणका
तात्पर्य मूढ़ताके बढ़ जानेमें है । गीताके सत्त्वगुणका स्वरूप प्रकाशक और अनामय है
(१४ । ६) । ‘प्रकाश’ नाम अन्तःकरणकी स्वच्छता,
निर्मलताका है अर्थात् अन्तःकरणमें सत्-असत् और कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक
होना ‘प्रकाश’ है । ‘अनामय’ नाम रोगरहित अर्थात् विकाररहित होनेका है । मनुष्य विकाररहित होता है‒जड़ताका त्याग करनेसे । गीतामें जैसे सत्त्वगुणको ‘अनामय’ कहा गया है, ऐसे ही निर्गुण तत्त्वको भी ‘अनामय’ कहा गया है (२ । ५१) । दोनोंको अनामय कहनेका तात्पर्य है कि परमात्मप्राप्तिमें
हेतु होनेके कारण सत्त्वगुण निर्गुण तत्त्वके नजदीक है । रजोगुणका स्वरूप रागात्मक है (१४ । ७) । उत्पन्न
और नष्ट होनेवाले पदार्थोंमें आकर्षण, प्रियता होनेका नाम ‘राग’
है, जिससे कामना पैदा होती है । यह कामना ही सम्पूर्ण पापोंका कारण है (३ । ३७) । तमोगुणका स्वरूप मोहनात्मक है, जिसमें मूढ़ता मुख्य है (१४ । ८)
। गीतामें राजस कर्ताको हिंसात्मक कहा गया है (१८ । २७) और तामस कर्ममें भी हिंसा बतायी
गयी है (१८ । २५) । दोनोंमें हिंसा बतानेका तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुण‒दोनों
एक-दूसरेके नजदीक हैं[‡] । अन्य ग्रन्थोंमें ऐसा आता है कि सत्त्वगुणसे पुण्य
होता है‒‘सात्त्विकैः पुण्यनिष्पत्तिः’, जिसका सुखरूप फल जन्म-जन्मान्तरमें, लोक-लोकान्तरमें
भोगा जाता है, पर गीताका सत्त्वगुण सांसारिक सुख देनेवाला नहीं है, प्रत्युत अविनाशी सुखकी प्राप्तिमें, मुक्तिमें सहायक
है । परन्तु इस सत्त्वगुणके साथ जब रजोगुण मिल जाता है, तब यह
सत्त्वगुण बाँधनेवाला हो जाता है । तात्पर्य है कि सत्त्वगुणका उपभोग करनेसे,
इससे होनेवाले सुख और ज्ञानका संग (राग) करनेसे यह मनुष्यको बाँध देता
है (१४ । ६) । गीतामें जहाँ-कहीं सात्त्विक, राजस और तामस‒इन तीनों गुणोंका
वर्णन हुआ है, वहाँ एक दृष्टिसे तो सात्त्विक और राजस एक (समान)
हैं, एक दृष्टिसे राजस और तामस एक हैं तथा एक दृष्टिसे सात्त्विक
और तामस एक हैं । जैसे‒शास्त्रविधिके
अनुसार कर्म करनेमें सात्त्विक और राजस एक हैं; परन्तु इनमें फरक यह है कि सात्त्विकमें निष्कामभाव रहता है और राजसमें सकामभाव
रहता है । संसारके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें राजस और तामस एक हैं; परन्तु इनमें फरक यह है कि राजसमें सावधानी होती है और तामसमें मूढ़ता होती
है । क्रियारहित होनेमें सात्त्विक और तामस एक हैं; परन्तु इनमें
फरक यह है कि सात्त्विकमें विवेककी जागृति रहती है और तामसमें मूढ़ता रहती है । वास्तवमें देखा जाय तो एक ही प्रकृतिसे उत्पन्न
होनेके कारण सात्त्विक,
राजस और तामस‒तीनों ही गुणोंका आपसमें सम्बन्ध है (१४ । ५) । इन गुणोंसे
अपना सम्बन्ध न रहनेपर प्रकृतिसे अतीत परमात्मतत्त्व अथवा स्वरूपका अनुभव हो जाता है,
जो तीनों गुणोंसे रहित है तथा न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है
(१३ । ३१) । नारायण
! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[*] किसी एक वस्तुपर एक चोट मारनेसे
दो टुकड़े होते हैं,
दो चोट मारनेपर तीन टुकड़े
होते हैं और तीन चोट मारनेपर चार टुकड़े होते हैं । ऐसे ही तीन गुणोंसे चार ही वर्णोंका
विभाग होता है । [†] गीतामें जिन अध्यायोंमें तथा
जिन श्लोकोंमें गुणोंका वर्णन आया है, उन्हींका यहाँ संकेत किया गया है । [‡] तमोगुण, रजोगण और सत्त्वगुण‒तीनोंमें परस्पर (१, १०
और १०० की तरह) दसगुनेका अन्तर है । फिर भी तमोगुण (१) से रजोगुण (१०) निकट है और सत्त्वगुण
(१००) इन दोनोंसे दूर है । |