।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें सगुणोपासनाके नौ प्रकार



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(५) सब कुछ भगवान्‌से ही होता है‒सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (७ । १२); बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि बीस भाव मेरेसे ही होते हैं (१० । ४-५); मेरेसे ही सारा संसार प्रवृत्त होता है (१० । ८); स्मृति, ज्ञान और अपोहन मेरेसे ही होते हैं (१५ । १५); परमात्मासे ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है (१८ । ४६); आदि-आदि ।

(६) सबके विधायक भगवान्‌ हैं‒जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंकी उपासना करता है, उस उपासनाके फलका विधान मैं ही करता हूँ (७ । २२); भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (९ । २२); मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त मेरी कृपासे अविनाशी पदको प्राप्‍त होता है (१८ । ५६); ईश्‍वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता हुआ शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको घुमाता है (१८ । ६१); आदि-आदि ।

(७) सबके आराध्य भगवान्‌ ही हैं‒तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्ररूपसे मेरा ही पूजन करते हैं (९ । २०); जो मनुष्य अन्य देवताओंकी उपासना करते हैं, वे वास्तवमें मेरी ही उपासना करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् वे उन देवताओंके रूपमें मुझे नहीं मानते (९ । २३); निगुण-निराकारकी उपासना करनेवाले मुझे ही प्राप्‍त होते हैं (१२ । ३-४); आदि-आदि ।

(८) सबके प्रकाशक भगवान्‌ हैं‒सूर्य, चन्द्रमा और अग्‍निमें मेरा ही तेज है अर्थात् इनको मैं ही प्रकाशित करता हूँ (१५ । १२) ।

(९) सब कुछ भगवान्‌ ही हैं‒सब कुछ वासुदेव ही है (७ । १९); इस सम्पूर्ण जगत्‌की गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहृद, प्रभव, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज मैं ही हूँ (९ । १८); सत् और असत् भी मैं ही हूँ (९ । १९); हे जगन्‍निवास ! सत् और असत् आप ही हैं तथा सत्‌-असत्‌से परे भी आप ही हैं (११ । ३७); आदि-आदि[*]

उपर्युक्त सभी उपासनाओंका तात्पर्य यह है कि सबके बीज, आधार, प्रकाशक, स्वामी, शासक एक भगवान्‌ ही हैं; परन्तु साधकोंकी रुचि, योग्यता और श्रद्धा-विश्‍वासकी विभिन्‍नताके कारण उनकी उपासनाओंमें भेद हो जाता है । तत्त्वसे कोई भेद नहीं है; क्योंकि परिणाममें सम्पूर्ण उपासनाएँ एक हो जाती हैं ।

जैसे भूख सबकी एक ही होती है और भोजन करनेपर तृप्‍ति भी सबको एक ही होती है, पर भोजनकी रुचि सबकी अलग-अलग होनेके कारण भोज्य पदार्थ अलग-अलग होते हैं; और जैसे मनुष्योंके वेश-भूषा, रहन-सहन, भाषा आदि तो अलग-अलग होते हैं, पर रोना और हँसना सबका एक ही होता है अर्थात् दुःख और सुख सबको समान ही होते हैं । ऐसे ही भगवत्प्राप्‍तिकी भूख (अभिलाषा) और भगवान्‌की अप्राप्‍तिका दुःख सभी साधकोंका एक ही होता है और साधनकी पूर्णता होनेपर भगवत्प्राप्‍तिका आनन्द भी सबको एक ही होता है, पर साधकोंकी रुचि, योग्यता और विश्‍वास अलग-अलग होनेसे उपासनाएँ अलग-अलग होती हैं ।

उपासनाके आरम्भमें साधकके भाव और योग्यताकी प्रधानता होती है और अन्तमें (सिद्धिमें) तत्त्वकी प्रधानता होती है । भाव और योग्यता तो व्यक्तिगत हैं, पर तत्त्व व्यक्तिगत नहीं है, प्रत्युत सर्वगत है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] यहाँ उपासनाके जो अलग-अलग नौ प्रकार बताये गये हैं, इनमेंसे कई प्रकार गीतामें कहीं-कहीं एक ही श्‍लोकमें आ गये हैं ।