।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें भगवान्‌की 

विषय-प्रतिपादन-शैली



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(छ)

अर्जुन क्रियापरक प्रश्‍न करते हैं तो भगवान्‌ उसका भावपरक उत्तर देते हैं; जैसे‒

(१) दूसरे अध्यायके चौवनवें श्‍लोकमें अर्जुनने क्रियापरक प्रश्‍न किये कि परमात्माको प्राप्‍त पुरुष कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है ? और कैसे चलता है ? इनका उत्तर भगवान्‌ने भावपरक दिया‒

वह कैसे बोलता है ? अर्थात् धीरे बोलता है या जोरसे बोलता है ? इसके उत्तरमें भगवान्‌ने कहा कि उसका बोलना ऐसा नहीं होता; किंतु वह दुःखोंकी प्राप्‍तिमें उद्विग्‍न नहीं होता और सुखोंकी प्राप्‍तिमें स्पृहा नहीं करता तथा वह राग, भय और क्रोधसे रहित होता है । शुभ-अशुभ परिस्थितियोंके आनेपर वह राग-द्वेष नहीं करता (२ । ५६- ५७) ।

वह कैसे बैठता है ? अर्थात् सिद्धासनसे बैठता है या पद्मासन आदिसे बैठता है ? इसके उत्तरमें भगवान्‌ने कहा कि उसका बैठना ऐसा नहीं होता; किंतु वह कछुएकी तरह अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे समेट लेता है, हटा लेता है । सम्पूर्ण-इन्द्रियोंको वशमें करके वह मेरे परायण हो जाता है (२ । ५८, ६१) ।

वह कैसे चलता है ? अर्थात् धीरे चलता है या तेजीसे चलता है ? इसके उत्तरमें भगवान्‌ने कहा कि उसका चलना ऐसा नहीं होता; किंतु वह राग-द्वेषसे रहित और कामना, अहंता, ममता तथा स्पृहासे रहित होकर आचरण करता है (२ । ६४‒७१) ।

(२) तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्‍लोकमें अर्जुनने पूछा कि भगवन् ! मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों कर बैठता है ? भगवान्‌ने कहा कि भीतरमें कामना रहनेसे ही पापकी क्रिया होती है (३ । ३७) । यदि भीतरमें कामना न रहे तो पापकी क्रिया हो ही नहीं सकती और कोई क्रिया ऊपरसे पापकी दीखनेपर भी उसको पाप नहीं लगता (१८ । १७) ।

(३) चौदहवें अध्यायके इकीसवें श्‍लोकमें अर्जुनने पूछा कि गुणातीतके क्या चिह्न (लक्षण) होते हैं ? अर्थात् उसकी आकृति, रंग-रूप कैसा होता है ? भगवान्‌ने कहा कि गुणोंकी वृत्तियोंके प्रवृत्त और निवृत्त होनेपर वह इनसे न राग करता है और न द्वेष करता है अर्थात् निर्लिप्‍त रहता है । वह उदासीनकी तरह रहता है और गुणोंसे विचलित न होकर अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है (१४ । २२-२३) ।

अर्जुनने पूछा कि गुणातीतके आचरण कैसे होते हैं ? अर्थात् वह सबके साथ एकता करता है या अलग रहता है ? छुआछूत रखता है या समान व्यवहार करता है ? भगवान्‌ने कहा कि उसके भीतर समभाव रहता है अर्थात् बाहरसे शास्‍त्र और लोकमर्यादाके अनुसार कई तरहका आचरण करते हुए भी उसके भीतर समता अटल बनी रहती है ( १४ । २४-२५) ।

अर्जुनने पूछा कि गुणातीत होनेका क्या उपाय है ? अर्थात् जप करना चाहिये या ध्यान करना चाहिये ? किसीके पास जाना चाहिये या तीर्थोंमें जाना चाहिये ? भगवान्‌ने कहा कि जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगसे मेरेमें लग जाता है, वह गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् गुणातीत हो जाता है (१४ । २६)

‒इस प्रकार अर्जुनके द्वारा क्रियापरक प्रश्‍न करनेपर भगवान्‌ने उसका भावपरक उत्तर दिया है ।

तात्पर्य है कि भगवान्‌ बाहरी आचरणों, वेशभूषा, रहन-सहन, आश्रम-परिवर्तन आदिको महत्त्व नहीं देते, प्रत्युत भावको ही महत्त्व देते हैं । कारण कि भाव बदलनेसे क्रिया अपने-आप ठीक हो जाती है । विशेषता तो भावमें ही है, क्रियामें नहीं; क्योंकि क्रिया तो मनुष्य पाखण्डसे भी कर सकता है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !