।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें भगवान्‌की वर्णन-शैली



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चित्रा   वर्णनशैली    तु    नटनाथस्य   विद्यते ।

भक्तौ ज्ञानं च संन्यासे भक्तिश्‍च कथिता स्वयम् ॥

भगवान्‌ जहाँ ज्ञानका वर्णन करते हैं, वहाँ फलमें भक्तिका वर्णन करते हैं; जैसे‒अठारहवें अध्यायके उन्चासवें श्‍लोकसे पचपनवें श्‍लोकतक ज्ञानका प्रकरण है, पर ज्ञानके फलके रूपमें भगवान्‌ने अपनी पराभक्तिकी प्राप्‍ति बतायी है‒मद्भक्तिं लभते पराम्’ । ऐसे ही भगवान्‌ जहाँ भक्तिका वर्णन करते हैं, वहाँ फलमें ज्ञानका वर्णन करते हैं; जैसे‒दसवें अध्यायके आठवें श्‍लोकसे ग्यारहवें श्‍लोकतक भक्तिका प्रकरण है, पर भक्तिके फलके रूपमें भगवान्‌ने ज्ञानकी प्राप्‍ति बतायी है‒अज्ञानजं तमः......ज्ञानदीपेन भास्वता’

जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन है, वहाँ भगवान्‌ने अपनी अनन्य अव्यभिचारिणी भक्तिको ज्ञानका साधन बताया है (१३ । १०); जहाँ गुणातीत होनेका वर्णन है, वहाँ भगवान्‌ने गुणातीत होनेका उपाय भक्तिको बताया है (१४ । २६) और जहाँ भक्तिका प्रकरण है, वहाँ भगवान्‌ने तत्त्वसे जाननेकी बात अर्थात् ज्ञानकी बात बतायी है (१० । १०) ।

तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञानमें भक्ति और भक्तिमें ज्ञान आवश्यक है । अतः ज्ञानमार्गी साधकको चाहिये कि वह भक्तिका और भक्तिमार्गीका तिरस्कार, निरादर आदि न करे; और भक्तिमार्गी साधकको चाहिये कि वह ज्ञानका और ज्ञानमार्गीका तिरस्कार, निरादर आदि न करे । कारण कि यदि ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी एक-दूसरेके तिरस्कार, निन्दा करेंगे तो उनका साधन सिद्ध नहीं होगा, उसमें बाधा लग जायगी अर्थात् उनके द्वारा साधकका और उसके साधनका जो तिरस्कार होगा, वह उनके साधनकी सिद्धिमें बाधक हो जायगा । अतः सभी साधकोंको चाहिये कि वे साधकमात्रके प्रति सद्‌भाव रखें । ऐसे तो परमात्माका अंश होनेसे प्राणिमात्रके प्रति सद्‍भाव होना ही चाहिये, पर उन प्राणियोंमेंसे जो ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि किसी भी साधनसे भगवान्‌में लगे हुए हैं, उन साधकोंका तो विशेष आदर होना चाहिये । ऐसा करनेसे साधकके साधनकी सिद्धि शीघ्र हो जायगी । गीतामें भगवान्‌ने भी किसीके मतका खण्डन या निन्दा न करके अपना मत बताया है (१८ । २‒६ आदि) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !