।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतोक्त अन्वय-व्यतिरेक

वाक्योंका तात्पर्य



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(६) तीसरे अध्यायके नवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि यज्ञके अतिरिक्त कर्म अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक हो जाते हैं‒‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यन्त्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ और चौथे अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें कहा कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं‒यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।’

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको केवल दूसरोंके हितके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करने चाहिये, अपने स्वार्थके लिये नहीं ।

(७) तीसरे अध्यायके तेरहवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कहा कि यज्ञशेषका अनुभव करनेवाले सब पापोंसे मुक्‍त हो जाते हैं; और उत्तरार्धमें कहा कि जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापी पाप ही कमाते हैं ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये । कारण कि निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे मुक्ति हो जाती है (३ । १९) और सकामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे बन्धन हो जाता है (५ । १२) ।

(८) तीसरे अध्यायके इक्‍कीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करते हैं, वैसा ही आचरण दूसरे मनुष्य करते हैं; और पचीसवें श्‍लोकमें कहा कि कर्मविधायक शास्‍त्रों, कर्मों और कर्मफलोंपर आस्था रखनेवाले आसक्तियुक्त अज्ञानी मनुष्य जैसे तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, वैसे ही आसक्तिरहित होकर विद्वान (ज्ञानी) मनुष्यको भी तत्परतापूर्वक कर्म करने चाहिये । इस प्रकार इक्‍कीसवें श्‍लोकमें श्रेष्ठ (ज्ञानी) मनुष्यको साधारण मनुष्योंके लिये आदर्श बताया है और पचीसवें श्‍लोकमें अज्ञानी मनुष्योंको ज्ञानी मनुष्यके लिये आदर्श बताया है ।[*]

‒इसका तात्पर्य है कि ज्ञानी महापुरुष आदर्श’ रहे अथवा अनुयायी’ बने, उसके द्वारा स्वतः लोकसंग्रह होता है ।

(९) तीसरे अध्यायके बाईसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि मेरे लिये त्रिलोकीमें कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी मैं कर्तव्य-कर्म करता हूँ; और तेईसवें श्‍लोकमें कहा कि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ तो लोग भी कर्तव्य-कर्म छोड़कर आलसी हो जायँगे ।

‒इसका तात्पर्य है कि ज्ञानी महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी उसको लोकसंग्रहके  लिये लोकमर्यादाको अटल रखनेके लिये कर्तव्य-कर्म करने चाहिये; क्योंकि स्वयं भगवान्‌ भी निरालस्य होकर तत्परतापूर्वक लोकसंग्रहके लिये कर्तव्य-कर्मका पालन करते हैं



[*] विद्वान् मनुष्यके लिये अज्ञानी मनुष्योंके कर्म करनेका प्रकारमात्र आदर्श है, उनका भाव नहीं । इसीलिये विद्वान् मनुष्यके लिये असक्तः’ (आसक्तिरहित) पद आया है ।