।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतोक्त अन्वय-व्यतिरेक

वाक्योंका तात्पर्य



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(१०) तीसरे अध्यायके सत्ताईसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके गुणोंद्वारा होती हैं; परन्तु मूढ़ मनुष्य अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेते हैं; और अट्ठाईसवें श्‍लोकमें कहा कि तत्त्ववेत्ता मनुष्य अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता । अतः मूढ़ मनुष्य तो क्रियाओंमें आसक्त होकर बँध जाते हैं और तत्त्ववेत्ता मनुष्य क्रियाओंमें आसक्त न होकर मुक्‍त हो जाते हैं ।

‒इसका तात्पर्य है कि ज्ञानयोगी साधक अपनेको किसी भी क्रियाका कर्ता न माने । वास्तवमें क्रियामात्र प्रकृतिमें ही है । आत्मा अकर्ता ही है । आत्मामें कर्तापन कभी हुआ नहीं, है नहीं और होना सम्भव भी नहीं; परन्तु जो मनुष्य संसारमें मोहित होते हैं, वे आत्माको कर्ता मान लेते हैं और जो तत्त्वको यथार्थरूपसे जाननेवाले हैं, वे आत्माको कर्ता नहीं मानते ।

(११) तीसरे अध्यायके अट्ठाईसवें श्‍लोकमें ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे है, ऐसा कहकर गुणोंको कर्ता बताया; और चौदहवें अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें गुणोंके सिवाय अन्य कर्ताका निषेध किया ।

‒इसका तात्पर्य है कि गुण ही कर्ता है, स्वयं (आत्मा) नहीं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंके द्वारा और गुणोंमें ही होती है, स्वयंके द्वारा और स्वयंमें नहीं ।

(१२) तीसरे अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि जो दोषदृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे मतका अनुष्ठान करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मोंसे छूट जाते हैं, मुक्‍त हो जाते हैं, और बत्तीसवें श्‍लोकमें कहा कि जो मेरेमें दोषदृष्टि करके मेरे मतका अनुष्ठान नहीं करते, उनका पतन हो जाता है ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यमात्रको अपना उद्धार करनेके लिये दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक भगवान्‌की कही हुई बातों (मत)-का निष्काम-भावपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये ।

(१३) चौथे अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें आया है कि श्रद्धावान् मनुष्यको ज्ञान हो जाता है, और चालीसवें श्‍लोकमें आया है कि अश्रद्धावान् मनुष्यको संशय रहता है अर्थात् उसे ज्ञान नहीं होता ।

‒इसका तात्पर्य है कि जो इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका विषय नहीं है, उस परमात्मापर श्रद्धा करनी चाहिये; क्योंकि उसकी प्राप्‍तिका मुख्य साधन श्रद्धा ही है ।

(१४) पाँचवें अध्यायके चौथे श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि जो सांख्य और योगको फलमें अलग-अलग मानते हैं, वे बालक अर्थात् बेसमझ हैं, और पाँचवें श्‍लोकमें कहा कि जो सांख्य और योगको फलमें एक मानते हैं, वे ही वास्तवमें सही देखते हैं अर्थात् वे ही पण्डित हैं ।

‒इसका तात्पर्य है कि सांख्ययोग और कर्मयोग‒ये दोनों अनुष्ठान करनेमें दो (अलग-अलग) हैं, पर फलमें दोनों एक ही हैं अर्थात् सांख्ययोगसे जिस तत्त्वकी प्राप्‍ति होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्‍ति कर्मयोगसे होती है ।

(१५) पाँचवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कहा कि योगी कर्मफलका त्याग करके कर्म करता है तो सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्‍त होता है; और उत्तरार्धमें कहा कि अयोगी (भोगी) अपने स्वार्थके लिये कर्म करता है तो बँध जाता है, जन्म-मरणके चक्‍करमें चला जाता है ।

‒इसका तात्पर्य हैं कि मनुष्यको सदा योगी अर्थात् कर्मफलका त्यागी होना चाहिये । उसको कर्मफलका भोगी नहीं बनना चाहिये ।