।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें आये परस्पर-विरोधी

पदोंका तात्पर्य



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(५) ज्ञान होनेपर तत्काल परमशान्तिरूप परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है (४ । ३९) और ज्ञानवान् पुरुष भगवान्‌की शरण हो जाता है (७ । १९) । ज्ञान होनेपर जब परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है, तो फिर भगवान्‌की शरण होना कैसे ?

जिज्ञासु दो प्रकारके होते है‒(१) जो संसारसे दुःखी होकर तत्त्वको जानना चाहते हैं । तत्त्वज्ञान होनेपर उनका दुःख मिट जाता है और परमशान्तिकी प्राप्‍ति हो जाती है और (२) जो भगवत्तत्त्वको जाननेके साथ-साथ भगवान्‌का प्रेम भी चाहते है, उनको सब कुछ वासुदेव ही हैऐसा अनुभव होनेपर भी वे भगवान्‌की शरणमें रहते हैं, भगवान्‌के प्रेमी बने रहते हैं । वास्तवमें दोनोंको एक ही तत्त्वका अनुभव होता है, केवल साधनमें भेद रहता है ।

(६) देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि क्रियाएँ करता हुआ भी ऐसा मानता है कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ (५ । ८-९)‒यह कैसे ?

सांख्ययोगीको यही अनुभव होता है कि वास्तवमें इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं अर्थात् सभी क्रियाएँ इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं । करनामात्र प्रकृतिमें ही है; क्योंकि मात्र क्रियाएँ और पदार्थ प्रकृतिके ही हैं । स्वरूपमें न क्रिया है, न पदार्थ । अतः मैं स्वयं प्रकृतिसे अतीत चिन्मय तत्त्व हूँ; मेरे स्वरूपके साथ इनका कोई सम्बन्ध था नहीं, है नहीं, होगा नहीं और होना सम्भव ही नहीं, इसलिये मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒इस प्रकार अपने स्वरूपकी दृष्टिसे कहना वास्तविक ही है ।

(७) भगवान्‌ किसीके पाप-पुण्यको ग्रहण नहीं करते (५ । १५) तू जो कुछ करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे अर्थात् भगवान्‌ सब कुछ ग्रहण करते हैं (९ । २७)‒यह कैसे ?

ये विषय दो है, एक नहीं । पाँचवें अध्यायके पंद्रहवें श्‍लोकमें सामान्य प्राणियोंकी बात है और नवें अध्यायके सत्ताईसवें श्‍लोकमें भक्तोंकी बात है । सामान्य प्राणी तो स्वयं ही कर्ता और भोक्ता बनते हैं अर्थात् अपने किये हुएका फल स्वयं ही भोगते हैं, इसलिये भगवान्‌ उनके पाप-पुण्यको ग्रहण नहीं करते । परन्तु जो सर्वथा भगवान्‌की शरण हो जाते हैं, वे भक्त भगवान्‌को ही सबका भोक्ता और मालिक मानते हैं । अतः वे भक्त भावपूर्वक भगवान्‌को जो कुछ देते हैं, अर्पण करते हैं, उसको भगवान्‌ ग्रहण करते हैं । उन भक्तोंके भावके कारण ही भगवान्‌को भूख लग जाती है, प्यास लग जाती है (९ । २६) । कारण कि भगवान्‌ भावके ही भोक्ता हैं ।

(८) कर्मोंमें आसक्ति न रहनेपर मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है (६ । ४); अपने-अपने कर्ममें अभिरत रहता हुआ मनुष्य सिद्धिको प्राप्‍त हो जाता है (१८ । ४५)‒यह कैसे ?

योगारूढ़ होना और सिद्धिको प्राप्‍त होना‒ये दोनों एक ही हैं; परन्तु कर्मोंमें आसक्ति और कर्मोंमें अभिरति‒ये दोनों अलग-अलग हैं । फलेच्छापूर्वक अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंमें आसक्ति हो जाती है और भगवान्‌के लिये कर्म करनेसे कर्मोंमें अभिरति (तत्परता) हो जाती है । आसक्तिमें कर्मों तथा पदार्थोंके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और अभिरतिमें कर्मों तथा पदार्थोंसे सम्बन्ध टूटता है और भगवान्‌में प्रीति हो जाती है, भगवत्सम्बन्धकी जागृति हो जाती है । अतः कर्मोंमें अभिरति तो होनी चाहिये, पर आसक्ति नहीं होनी चाहिये ।