।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     पौष शुक्ल द्वितीया , वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें आये पुनरुक्त

समानार्थक वाक्योंका तात्पर्य



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पुनरुक्तानि वाक्यानि समानार्थानि कुत्रचित् ।

अत्र  तेषां  च  तात्पर्यं  कथ्यते  भावपूर्वकम् ॥

‘सिद्ध्यअसिद्ध्योः समो भूत्वा’ (२ । ४८) समः सिद्धावसिद्धौ च’ (४ । २२); और सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः’ (१८ । २६)‒ये तीनों वाक्य समानार्थक हैं, फिर भी इनमें थोड़ा अन्तर है । पहलेके दोनों वाक्य कर्मयोगी साधकके हैं और अन्तिम वाक्य सांख्ययोगी साधकका है । कर्मयोगी साधक ‘मुझे कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि’, ‘पूर्ति-अपूर्तिमें सम रहना है’इस भावसे कर्तव्य-कर्म करता है (२ । ४८) । इस तरह कर्म करनेसे वह सिद्धि-असिद्धिमें स्वतः सम हो जाता है (४ । २२) । सांख्ययोगी साधक सम्पूर्ण विकारोंको प्रकृतिमें ही मानता है, अपनेमें नहीं । अतः वह सिद्धि-असिद्धिमें स्वतः निर्विकार रहता है । तात्पर्य है कि सिद्धि-असिद्धिमें सम कहो अथवा निर्विकार कहो, एक ही बात है । सिद्धि-असिद्धिमें सम, निर्विकार होनेपर दोनोंको तत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है (५ । ५) ।

(२) वीतरागभयक्रोधः’ (२ । ५६); वीतरागभयक्रोधाः’ (४ । १०); और ‘विगतेच्छाभयक्रोधः’ (५ । २८)‒ये तीनों वाक्य क्रमशः कर्मयोग, भक्तियोग और ध्यानयोगमें आये हैं । तात्पर्य है कि कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग आदि कोई-सा भी योग (साधन) हो, उसके द्वारा साधक सांसारिक राग, इच्छा, भय, क्रोध आदिकी वृत्तियोंसे रहित हो जाता है । कारण कि ये राग आदिकी वृत्तियाँ संसारके साथ सम्बन्ध माननेसे ही पैदा हुई हैं । वास्तवमें ये साधकके स्वरूपमें हैं ही नहीं । अतः संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही ये मिट जाती हैं और स्वतःसिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है । इसलिये साधक किसी भी मार्गका अनुकरण करनेवाला हो, उसमें निर्विकारता आनी चाहिये ।

(३) ‘मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा’ (३ । ३०); ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’ (५ । १०); ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य’ (१२ । ६); चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य’ (१८ । ५७); और ‘सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते’ (५ । १३)‒पहलेके चार वाक्य भक्तियोगमें और अन्तिम वाक्य ज्ञानयोगमें आया है । तात्पर्य है कि भक्तियोगमें सब कर्म भगवान्‌के अर्पण होते हैं और ज्ञानयोगमें सब कर्म शरीर (प्रकृति)-के अर्पण होते हैं । वास्तवमें कर्मोंका अपने साथ सम्बन्ध किसी भी योगमें नहीं होता । कर्मोंका अपने साथ सम्बन्ध होनेपर भोग होता है, योग नहीं होता । साधकमें योग होना चाहिये, भोग नहीं ।

(४) प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’ (३ । २७); गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३ । २८); इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (५ । ९); प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः’ (१३ । २९); ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारम्’ (१४ । १९); गुणा वर्तन्त इत्येव’ (१४ । २३)‒इन सबका तात्पर्य है कि चाहे प्रकृतिके द्वारा सब कर्म होते हैं‒ऐसा कह दो, चाहे प्रकृतिके कार्य गुणोंके द्वारा सब कर्म होते हैं‒ऐसा कह दो, चाहे गुणोंके कार्य इन्द्रियोंके द्वारा सब कर्म होते हैं‒ऐसा कह दो, तीनों बातें एक ही है । करनेवाली प्रकृति ही है, पुरुष (चेतन) नहीं । क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है, पुरुष सर्वथा अक्रिय है । अतः साधकको अपने अक्रिय स्वरूपका बोध होना चाहिये ।

(५) ‘स मे युक्ततमो मतः’ (६ । ४७) और ते मे युक्ततमा मताः’ (१२ । २)‒इन दोनोंमें एकवचन-बहुवचनका ही अन्तर है, शब्दोंका अन्तर नहीं है । पहली बार (६ । ४७में) तो भगवान्‌ने अर्जुनके बिना पूछे ही कहा कि सम्पूर्ण योगियोंमें भक्तियोगी युक्ततम (श्रेष्ठ) है और दूसरी बार (१२ । २में) अर्जुनके पूछनेपर कहा कि ज्ञानयोगी और भक्तियोगी‒इन दोनोंमें भक्तियोगी युक्ततम है । तात्पर्य है कि बिना अपनी जिज्ञासाके जो बात सुनी जाती है, वह बात पकड़में नहीं आती । परन्तु खुदकी जिज्ञासा होनेपर जो बात सुनी जाती है, वह बात दृढ़तासे पकड़में आ जाती है । जैसे पहली बार भगवान्‌ने भक्तियोगीको सम्पूर्ण योगियोंमें श्रेष्ठ बताया, पर अर्जुनने इस बातको नहीं पकड़ा । इसीलिये उन्होंने (१२ । १में) इसी विषयमें प्रश्‍न किया । अर्जुनके प्रश्‍न करनेपर भगवान्‌ने वही बात पुनः कही तो अर्जुनके द्वारा वह बात पकड़ी गयी; क्योंकि उसके बाद अर्जुनने पुनः इस विषयमें प्रश्‍न नहीं किया ।