।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     पौष शुक्ल चतुर्थी , वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें आये पुनरुक्त

समानार्थक वाक्योंका तात्पर्य



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(६) ‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (८ । २१) और ‘यद्‌गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (१५ । ६)‒यद्यपि ‘यं प्राप्य’ और यद्‌गत्वा’इन दोनों पदोंका अर्थ एक ही है; क्योंकि प्राप्य’ (‘आप्लृ व्याप्तौ’) का अर्थ भी प्राप्‍त होना होता है और ‘गत्वा’ (‘गम्लृ गतौ’) का अर्थ भी प्राप्‍त होना होता है, तथापि पहले वाक्यमें सगुण-निराकार परमात्माके स्वरूपका वर्णन है, जिसका सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नाश नहीं होता । उसकी सब जगह व्यापकता दीखती है, अपरोक्षता दीखती है । अतः उसको प्राप्‍त होनेकी बात कही गयी है । परन्तु दूसरे वाक्यमें वैकुण्ठलोक, गोलोक, साकेतलोक आदि धामकी मुख्यताको लेकर वर्णन है, जिसको सूर्य आदि भी प्रकाशित नहीं कर सकते । वह धाम दूर, परोक्ष दीखता है । अतः वहाँ जानेकी बात कही गयी है । वास्तवमें परमात्माका स्वरूप और परमात्माका धाम‒दोनों तत्त्वसे एक ही हैं ।

(७) ‘उदासीनवदासीनम्’ (९ । ९) और ‘उदासीनवदासीनः’ (१४ । २३)‒भगवान्‌ प्राणियोंके स्वभावके अनुसार सृष्टिकी रचना करते हैं; परन्तु वे उस सृष्टिरचना-रूप कर्मसे लिप्‍त नहीं होते, प्रत्युत उदासीनकी तरह रहते हैं (९ । ९) । ऐसे ही गुणातीत महापुरुष भी उदासीनकी तरह रहता है; क्योंकि वह गुणोंकी वृत्तियों आदिसे कभी किंचिन्मात्र भी विचलित नहीं होता (१४ । २३) ।

(८) ‘अहमादिश्‍च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ (१० । २०) और ‘सर्गाणामादिरन्तश्‍च मध्यं चैवाहमर्जुन’ (१० । ३२)‒दसवें अध्यायमें भगवान्‌ चिन्तनके लिये अपनी विभूतियोंका वर्णन कर रहे हैं । अतः पहले वाक्यका तात्पर्य है कि अगर साधककी दृष्टि प्राणियोंकी तरफ चली जाय तो वहाँ यही चिन्तन करे कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें भगवान्‌ ही हैं । दूसरे वाक्यका तात्पर्य है कि अगर साधककी दृष्टि सर्गों (सृष्टियों)-की तरफ चली जाय तो वहाँ भी यही चिन्तन करे कि अनन्त सृष्टियोंके आदि, मध्य और अन्तमें भगवान्‌ ही रहते हैं ।

(९) ‘अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्’ (१३ । १६) और ‘अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्’ (१८ । २०)‒पहले वाक्यमें ज्ञेय तत्त्व अर्थात् वास्तविक बोधका और दूसरे वाक्यमें सात्त्विक ज्ञानका वर्णन है । साधकके लिये सात्त्विक ज्ञान उपादेय है और राजस-तामस ज्ञान त्याज्य है । वास्तविक बोध सात्त्विक ज्ञानसे भी ऊँचा है अर्थात् वह सात्त्विक ज्ञानके द्वारा प्रापणीय है । वह वास्तविक बोध ही सात्त्विक ज्ञान (विवेक)-के रूपमें प्रकट होता है ।

जैसे सिद्ध महापुरुष और ऊँचे साधकके लक्षणोंमें भेद करना कठिन होता है, ऐसे ही वास्तविक बोध और सात्त्विक ज्ञानमें भेद करना भी कठिन है । फिर भी वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष, गुणातीत होता है और सात्त्विक ज्ञान करण-सापेक्ष होता है ।

(१०) समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्‍वरम्’ (१३ । २७) और ‘सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते’ (१८ । २०)‒पहले वाक्यमें तो ज्ञानयोगीकी दृष्टिका वर्णन है और दूसरे वाक्यमें सात्त्विक ज्ञानका वर्णन है । सब जगह परमात्माको देखनेसे साधकको परमात्माकी प्राप्‍ति होती है और सात्त्विक ज्ञानमें स्थित रहनेसे साधक गुणातीत हो जाता है । तात्पर्य है कि परिणाममें दोनों साधनोंसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है[*]

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] इसी तरह बलं’ ‘भीष्माभिरक्षितम्’ और ‘बलं भीमाभिरक्षितम्’ (१ । १०); ‘प्रभवन्त्यहरागमे’ और प्रभवत्यहरागमे’ (८ । १८-१९) आदि पुनरुक्त समानार्थक वाक्य भी गीतामें आये हैं, पर इनमे कोई विशेष विचारणीय विषय न होनेसे इन्हें यहाँ नहीं लिया गया है ।