।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     फाल्गुन अमावस्या, वि.सं.-२०७९, सोमवार
                    सोमवती अमावस्या

संसारका असर कैसे छूटे ?



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प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मैं कभी मरूँ नहीं, मैं सब कुछ जान जाऊँ और मैं सदा सुखी रहूँ । ये तीनों इच्छाएँ मूलमें सत्, चित् और आनन्दकी इच्छा है । परन्तु वह इस वास्तविक इच्छाको शरीरकी सहायतासे पूरी करना चाहता है; क्योंकि स्वयं परमात्माका अंश होते हुए भी वह शरीर-इन्द्रियाँ मन-बुद्धिको अपना मान लेता है[*] । परन्तु वास्तवमें मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छाको शरीर अथवा संसारकी सहायतासे पूरी कर ही नहीं सकता । कारण कि शरीर नाशवान् है, इसलिये उसके द्वारा कोई मरनेसे नहीं बच सकता । शरीर जड़ है, इसलिये उसके द्वारा ज्ञान नहीं हो सकता । शरीर प्रतिक्षण बदलनेवाला है, इसलिये उसके द्वारा कोई सुखी नहीं हो सकता । इसलिये मनुष्यमें जो सत्-चित्-आनन्दकी इच्छा है, उसकी पूर्ति शरीरसे असंग (सम्बन्धरहित) होनेपर ही हो सकती है । इस वास्तविक इच्छाकी पूर्तिमें शरीर लेशमात्र भी साधक अथवा बाधक नहीं है, प्रत्युत शरीरका सम्बन्ध ही इसमें बाधक है । इसलिये शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर साधक क्रिया और पदार्थसे असंग हो जाता है । क्रिया और पदार्थदोनों प्रकृतिके कार्य हैं । क्रिया और पदार्थसे असंग होनेपर साधककी वास्तविक इच्छा पूरी हो जाती है । वास्तविक इच्छाकी पूर्ति होनेपर साधककी सत्-चित्-आनन्दरूप स्वरूपमें स्थिति हो जाती है । स्वरूपमें स्थिति होनेपर लौकिक साधना (कर्मयोग तथा ज्ञानयोग)-की सिद्धि हो जाती है । फिर स्वरूप जिसका अंश है, उस परमात्माको अपना माननेसे, उसके शरणागत होनेसे अलौकिक साधना (भक्तियोग)-की सिद्धि हो जाती है । अर्थात् परम प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है । परम प्रेमकी प्राप्तिमें ही मनुष्यजन्मकी पूर्णता है ।[†] इसलिये साधकको आरम्भसे ही इस सत्यको स्वीकार कर लेना चाहिये कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है । कारण कि मैं परा प्रकृति (चेतन) हूँ, जो कि परमात्माका अंश है और शरीर-संसार अपरा प्रकृति (जड़) है । अपरा प्रकृति अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी हमारी वास्तविक इच्छाकी पूर्ति नहीं कर सकती अर्थात् हमें अमर नहीं बना सकती, हमारा अज्ञान नहीं मिटा सकती और हमें सदाके लिये सुखी नहीं कर सकती ।

प्रश्‍नसत्संगमें ऐसी बातें सुनते हुए भी जब व्यवहार करते हैं, तब राजी-नाराज हो जाते हैं, क्या करें ?

उत्तरव्यवहारमें राजी-नाराज हो जाते हैं तो यह बालकपना है । बच्‍चे खेलते हैं तो वे मिट्टी इकट्ठी करके पहाड़, मकान आदि बना देते हैं और उसमें लाइन खींच देते हैं कि इतनी जमीन मेरी है, इतनी तुम्हारी है । दूसरा बच्‍चा जमीन ले लेता है तो लड़ने लग जाते हैं कि तुमने हमारी जमीन कैसे ले ली ? यह तुम्हारी नहीं, हमारी है । कोई बड़ा आदमी आकर कहता है कि ‘बच्‍चो ! लड़ते क्यों हो ?’ वे कहते हैं कि हमने पहले लकीर खींची है, इसलिये यह हमारी है । वह आदमी कहता है कि अच्छा, तुम ऐसा-ऐसा कर दो तो दोनों राजी हो जाते हैं । इतनेमें माँ बुलाती है कि ‘अरे बच्‍चो ! आओ, भोजनका समय हो गया’ तो बच्‍चे झट उठकर चल देते हैं । अब उनका जमीनसे कोई मतलब नहीं ! इसी तरह हम कहते हैं कि धन-सम्पत्ति हमारी है, जमीन हमारी है आदि । वास्तवमें न हमारी है, न तुम्हारी है । यह तो खेल है, तमाशा है ! एक दिन धन-सम्पत्ति, जमीन आदि सबको छोड़कर जाना पड़ेगा । इनकी यादतक नहीं रहेगी । पिछले जन्ममें हमारा कौन-सा घर था, कौन-सा कुटुम्ब था, अब याद है क्या ? इस संसारकी कोई भी वस्तु व्यक्तिगत नहीं है । जैसे धर्मशाला सबके लिये होती है, ऐसे ही यह संसार सबके लिये है । इसलिये मकान वही रहते हैं, जमीन वही रहती है, पर आदमी बदलते रहते हैं । इन बातोंकी तरफ आपका ध्यान जाना चाहिये । सत्संग करनेवालोंका इन बातोंकी तरफ ध्यान नहीं जायगा तो फिर किसका जायगा ? सत्संग भी करते हो और राग-द्वेष भी करते हो तो वास्तवमें सत्संग किया ही नहीं, सत्संग सुना ही नहीं, सत्संग समझा ही नहीं, सत्संगकी हवा ही नहीं लगी । सत्संगमें राग-द्वेष, काम-क्रोध कम नहीं होंगे तो फिर कैसे कम होंगे ? यदि आपके भावोंमें, आचरणोंमें फर्क नहीं पड़ा तो सत्संग क्या किया ! कोरा समय खराब किया ! सत्संग करे और फर्क नहीं पड़ेयह हो ही नहीं सकता । सत्संग करेगा तो फर्क जरूर पड़ेगा । फर्क नहीं पड़ा तो असली सत्संग मिला नहीं है । असली सत्संग मिले तो फर्क पड़े बिना रह सकता ही नहीं ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] ममैवांशो  जीवलोके  जीवभूतः सनातनः ।

  मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति

(गीता १५ । ७)


[†] लौकिक साधनाकी सिद्धिमें तो अहम्‌की सूक्ष्म गन्ध रह सकती है, पर अलौकिक साधनाकी सिद्धिमें अहम्‌की सूक्ष्म गन्ध भी नहीं रहती ।