Listen साधक योगभ्रष्ट होता है तो वह दूसरे जन्ममें श्रीमानोंके घर
जन्म लेता है अथवा योगियोंके घर जन्म लेता है । शरीर तो मर गया, जला दिया गया, फिर
श्रीमानों अथवा योगियोंके घर कौन जन्म लेगा ? वही जन्म लेगा, जो शरीरसे अलग है ।
इसलिये आप इस बातको दृढ़तासे स्वीकार कर लें कि हम शरीर
नहीं हैं, प्रत्युत शरीरको जाननेवाले हैं । इस बातको स्वीकार किये बिना साधन बढ़िया
नहीं होगा, सत्संगकी बातें ठीक समझमें नहीं आयेंगी । शरीर तो प्रतिक्षण बदलता है, पर आप महासर्ग और महाप्रलय
होनेपर भी नहीं बदलते, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों एकरूप रहते हैं—‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता
१४ । २) । आपने अबतक कई शरीर धारण किये, पर सब शरीर छूट गये, आप वही
रहे । शरीर तो यहीं छूट जायगा, पर स्वर्ग या नरकमें आप जाओगे, मुक्ति आपकी होगी, भगवान्के
धाममें आप पहुँचोगे । तात्पर्य है कि आपकी सत्ता (स्वरूप) शरीरके अधीन नहीं हैं ।
अतः शरीरके रहने अथवा न रहनेसे आपकी सत्तामें कोई फर्क नहीं पड़ता । अनन्त
ब्रह्माण्ड हैं, अनन्त सृष्टियाँ हैं, पर उनका आपपर रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ता ।
केश-जितनी चीज भी आपतक नहीं पहुँचती । ये सब मन-बुद्धितक ही पहुँचती हैं ।
प्रकृतिका कार्य मन-बुद्धिसे आगे जा सकता ही नहीं । इसलिये अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी चीज भी आपकी नहीं है । आपके
परमात्मा हैं और आप परमात्माके हो । साधन करके आप ही परमात्माको प्राप्त
होंगे, शरीर प्राप्त नहीं होगा । इसलिये साधन करते हुए
ऐसा मानना चाहिये कि हम निराकार हैं, साकार (शरीर) नहीं हैं । आप मकानमें
बैठते हैं तो आप मकान नहीं हो जाते । मकान अलग है, आप अलग हैं । मकानको छोड़कर आप
चल दोगे । फर्क आपमें पड़ेगा, मकानमें नहीं । ऐसे ही शरीर यहीं रहेगा, आप चल दोगे
। पाप-पुण्यका फल आप भोगोगे, शरीर नहीं भोगेगा । मुक्ति आपकी होगी, शरीरकी नहीं
होगी । शरीर तो मिट्टी हो जायगा, पर आप मिट्टी नहीं होंगे । आपका स्वरूप गीताने इस
प्रकार बताया है‒ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य
एव च । नित्यः
सर्वगतः
स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते
। तस्मादेवं
विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ (२ । २४-२५) ‘यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला
नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता । कारण कि यह नित्य रहनेवाला,
सबमें परिपूर्ण, अचल स्थिर स्वभाववाला और अनादि
है ।’
‘यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और
यह निर्विकार कहा जाता है । अतः इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये ।’ |