Listen साधकोंकी प्रायः यह शिकायत रहती है कि यह जानते हुए भी कि
संसारकी कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, जब कोई वस्तु सामने आती है तो उसका असर पड़
जाता है । इस विषयमें दो बातें ध्यान देनेयोग्य हैं । एक
बात तो यह है कि असर पड़े तो परवाह मत करो अर्थात् उसकी उपेक्षा कर दो । न तो उसको
अच्छा समझो, न बुरा समझो । न उसके बने रहनेकी इच्छा करो, न मिटनेकी इच्छा करो ।
उससे उदासीन हो जाओ । दूसरी बात यह है कि असर वास्तवमें मन-बुद्धिपर पड़ता है, आपपर
नहीं पड़ता । अतः उसको अपनेमें मत मानो । किसी वस्तुसे राग होनेपर भी सम्बन्ध जुड़ता है और
द्वेष होनेपर भी सम्बन्ध जुड़ता है । भगवान् श्रीराम वनमें गये तो उनके साथ जिन ऋषि-मुनियोंने स्नेह किया, उनका
उद्धार हो गया और जिन राक्षसोंने द्वेष किया, उनका भी उद्धार हो गया, पर जिन्होंने
न राग किया, न द्वेष किया, उनका उद्धार नहीं हुआ; क्योंकि उनका सम्बन्ध भगवान्के
साथ नहीं जुड़ा । इसी तरह संसारका असर मनमें पड़े तो उसमें
राग-द्वेष करके उसके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो । आप भगवान्के भजन-साधनमें
लगे रहो । संसारका असर हो जाय तो होता रहे, अपना उससे कोई मतलब नहीं—इस तरह उसकी उपेक्षा कर दो । जैसे आप कुत्तेके मनके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानते,
ऐसे ही अपने मनके साथ भी अपना कोई सम्बन्ध मत मानो । कुत्तेका मन और आपका मन एक ही
जातिके हैं । जब कुत्तेका मन आपका नहीं है तो यह मन भी आपका नहीं है । मन जड़ प्रकृतिका कार्य है, आप चेतन परमात्माके अंश हो । जैसे
कुत्तेके मनमें संसारका असर पड़नेसे आपमें कोई फर्क नहीं पड़ा, ऐसे ही इस मनका भी
आपमें कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये । मनका सम्बन्ध प्रकृतिके साथ है और आपका सम्बन्ध परमात्माके
साथ है । आपने मनके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया तो अब दुःख पाना ही पड़ेगा । अब आप
मनसे, शरीरसे जो काम करोगे, उसका पाप-पुण्य आपको लगेगा ही । कुत्तेके मनमें कुछ भी
आये, उससे आपको क्या मतलब ? ऐसे ही इस मनमें कुछ भी आये, उससे आपको क्या मतलब ? आपका सम्बन्ध शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ नहीं है,
प्रत्युत परमात्माके साथ है—इस बातको समझानेके लिये ही गीतामें भगवान् कहते हैं—‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (१५ । ७) ‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है’ । इस बातको समझ लो तो आपकी वृतियोंमें, आपके
साधनमें फर्क पड़ जायगा । आप अपनेको ‘मैं हूँ’—इस तरह जानते हैं । इसमें ‘मैं’ तो जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । ‘मैं’ के कारणसे
‘हूँ’ है । अगर ‘मैं’ (अहम्) न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत केवल ‘है’
(चिन्मय सत्तामात्र) रह जायगा । इसी बातको गीतामें भगवान्ने कहा है कि जब साधक जब
निर्मम-निरहंकार हो जाता है, तब उसकी स्थिति ब्रह्ममें हो जाती है—‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’ (गीता २ । ७२) । अहंकार हमारा स्वरूप नहीं है । अहंकार अपरा प्रकृति है और हम
परा प्रकृति हैं । हम अलग हैं, अहंकार अलग है । जैसे, जाग्रत् और स्वप्नमें
अहंकार जाग्रत् रहता है, पर सुषुप्तिमें अहंकार जाग्रत् नहीं रहता, प्रत्युत
अविद्यामें लीन हो जाता है । सुषुप्तिमें अहंकार न रहनेपर भी हम रहते हैं । हमारा
स्वरूप अशरीरी है । जैसे भगवान् अव्यक्त हैं[*], ऐसे ही उनका अंश होनेसे हम भी स्वरूपसे अव्यक्त (निराकार)
हैं । अव्यक्तमूर्तिका अंश भी अव्यक्तमूर्ति ही होगा । यह शरीर तो भोगायतन
(भोगनेका स्थान) है । जैसे हम रसोईघरमें बैठकर भोजन करते हैं, ऐसे ही हम शरीरमें
रहकर कर्मफल भोगते हैं । इसलिये साधकको यह बात अच्छी तरह
समझ लेनी चाहिये कि मैं अव्यक्त (निराकार)-रूप हूँ, मनुष्यरूप नहीं हूँ । साधन
करनेवाला शरीर नहीं होता । इसीलिये हम कहते हैं कि मैं बचपनमें जो था, वही
मैं आज हूँ । बचपनसे लेकर आजतक हमारे शरीरमें इतना फर्क पड़ गया कि पहचान भी नहीं
सकते, फिर भी हम वही हैं । बचपनमें मैं खेला करता था, बादमें पढ़ता था, वही मैं आज
हूँ । शरीर वही नहीं है । शरीर तो एक क्षण भी नहीं रहता, निरन्तर बदलता रहता है ।
जो नहीं बदलता, वही साधक है । बदलनेवाला साधक नहीं है ।
[*] मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । (गीता ९ । ४) ‘यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है ।’ |