।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

कल्याणके तीन सुगम मार्ग



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शरणागतिमें न तो सांसारिक दीनता है और न पराधीनता ही है । कारण कि भगवान्‌ ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘स्वकीय’ हैं । प्रकृति तथा उसका कार्य ‘पर’ है । अतः प्रकृति तथा उसके कार्य (क्रिया और पदार्थ)-की अधीनतामें ही पराधीनता है । भगवान्‌की अधीनतामें तो परम स्वाधीनता है । जैसे, माता-पिताके भक्त पुत्रमें माता-पिताकी पराधीनता नहीं होती, प्रत्युत कर्तव्यका पालन होता है; क्योंकि माता-पिता ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘निज’ (अपने) हैं । सांसारिक दीनतामें तो कुछ लेनेका भाव रहता है, पर शरणागतिमें कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत अपने-आपको देना है । भगवान्‌का अंश होनेके कारण जीव सदासे ही भगवान्‌का है । भगवान्‌के साथ इस नित्य सम्बन्धकी स्मृति ही शरणागति है ।

भगवान्‌ने अपनेको भक्तोंके पराधीन कहा है‒‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज’ (श्रीमद्भा ९ । ४ । ६३) । यह प्रेमकी विलक्षणता है । भगवान्‌ प्रेमके भूखे हैं । वास्तवमें भगवान्‌ पराधीन नहीं हैं, प्रत्युत पराधीनताकी तरह (इव) हैं । पराधीनता वहाँ होती है, जहाँ भेद हो । भक्तिमें भेद मिटकर भगवान्‌ तथा भक्तमें अभिन्‍नता हो जाती है, फिर पराधीनताका प्रश्‍न ही पैदा नहीं होता । जब ‘पर’ (क्रिया और पदार्थ)-का सम्बन्ध सर्वथा मिट जाता है, तब भगवान्‌में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है । प्रेममें न तो कोई दूसरा है, न कोई पराया है । अतः प्रेममें पराधीनताकी गन्ध भी नहीं है ।

भक्तियोग साध्य है । ज्ञानयोग तथा कर्मयोग साधन हैं । संसारके बन्धन (जन्म-मरण)-से छूटनेका नाम मुक्ति है । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगसे मुक्ति होती है[*] । भक्तियोगमें मुक्तिके साथ-साथ प्रेमकी भी प्राप्ति होती है । इसलिये भक्तियोग विशेष है ।

ज्ञानयोग

कर्मयोग

भक्तियोग

१. आध्यात्मिक साधना

भौतिक साधना

आस्तिक साधना

२. जाननेकी शक्ति

करनेकी शक्ति

माननेकी शक्ति

३. विवेककी मुख्यता

क्रियाकी मुख्यता

भाव (श्रद्धा-विश्‍वास)-की मुख्यता

४. स्वरूपको जानना

सेवा करना

भगवान्‌को मानना

५. रूपपरायणता

कर्तव्यपरायणता

भगवत्‌परायणता

६.स्वाश्रय

धर्म (कर्तव्य)-का आश्रय

भगवदाश्रय

७. अहंताका त्याग

कामनाका त्याग

ममताकात्याग

८. अहंताको मिटाना

अहंताको शुद्ध करना

अहंताको बदलना

९. अपने लिये उपयोगी

संसारके लिये उपयोगी

भगवान्‌के लिये उपयोगी

१०. ‘अक्षर’ की प्रधानता

‘क्षर’ की प्रधानता

‘पुरुषोत्तम’ की प्रधानता

११. ज्ञातज्ञातव्यता

कृतकृत्यता

प्राप्तप्राप्तव्यता

१२. अखण्डरस

शान्तरस

अनन्तरस

१३. तात्त्विक-सम्बन्ध

नित्य-सम्बन्ध

आत्मीय-सम्बन्ध

१४. परमात्मासे एकता

परमात्मासे समीपता

परमात्मासे अभिन्‍नता

१५. बोधकी प्राप्ति

योगकी प्राप्ति

प्रेमकी प्राप्ति

१६. स्वाधीनता

उदारता

आत्मीयता

१७. स्वरूपमें स्थिति होती है

जड़का आकर्षण मिटता है

भगवान्‌में आकर्षण होता है

१८. कर्तृत्वका त्याग

भोक्तृत्वका त्याग

ममत्वका त्याग

१९. आत्मसुखसे सुखी होना

संसारके सुखसे सुखी होना

भगवान्‌के सुखसे सुखी होना

२०. कुछ भी न करना

संसारके लिये करना

भगवान्‌के लिये करना

२१. प्रकृतिके अर्पण करना

संसारके अर्पण करना

भगवान्‌के अर्पण करना

२२. विरक्ति

अनासक्ति

अनुरक्ति

२३. देहाभिमान बाधक है

कामना बाधक है

भगवद्विमुखता बाधक है

२४. विचारकी मुख्यता

उद्योगकी मुख्यता

विश्‍वासकी मुख्यता

२५. कर्म भस्म हो जाते हैं

कर्म अकर्म हो जाते हैं

कर्म दिव्य हो जाते हैं

२६. कुछ भी न चाहना

दूसरोंकी चाह पूरी करना

भगवान्‌की चाहमें अपनी चाह मिलाना

२७. किसीको भी अपना न मानना

सभीको (सेवाके लिये) अपना मानना

एक (भगवान्‌)-को ही अपना मानना

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] भगवान्‌ने ज्ञानयोग और कर्मयोगको समकक्ष कहा है‒

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

एकमप्यास्थितः    सम्यगुभयोर्विन्दते    फलम् ॥

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं   तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥

(गीता ५ । ४-५)

‘बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले कहते हैं, न कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त कर लेता है ।’

‘सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगीयोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही ठीक देखता है ।’