Listen कुछ करनेसे हमारेको लाभ होगा‒ऐसा सोचना भूल है ।
कारण कि मात्र क्रियाएँ जड़ तथा नाशवान् हैं और स्वयं चेतन तथा अविनाशी है । जड़ वस्तुके द्वारा चेतनको क्या मिलेगा ? नाशवान् वस्तुसे
अविनाशीको क्या लाभ होगा ? जड़ और नाशवान् क्रियासे हमारा भला होनेवाला नहीं है ।
इसलिये हमारा न तो कर्म करनेसे कोई मतलब होना चाहिये और न कर्म नहीं करनेसे ही कोई
मतलब होना चाहिये‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’
(गीता ३ । १८) । ‘करना’ और ‘न करना’‒दोनों प्रकृति (जड़-विभाग)-में हैं और
अभावरूप हैं । स्वयं (चेतन-विभाग)-में ‘करना’ और ‘न करना’ दोनों ही नहीं हैं,
प्रत्युत वह इन दोनोंको प्रकाशित करनेवाला भावरूप निरपेक्ष तत्त्व है । जैसे ‘करने’
से शरीरको परिश्रम होता है, ऐसे ही ‘न करने’ से अर्थात् सुषुप्तिसे शरीरको ही विश्राम
मिलता है, स्वयंको नहीं । स्वयंको विश्राम तो स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों
शरीरोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे ही मिलेगा । साधकको गहरे उतरकर समझना चाहिये कि मैं स्थूलशरीर नहीं हूँ,
सूक्ष्मशरीर भी नहीं हूँ और कारणशरीर भी नहीं हूँ । वस्तु, योग्यता, बल आदि कुछ भी
मेरा नहीं है । ये सब परिवर्तनशील हैं । मेरा स्वरूप अपरिवर्तनशील सत्तामात्र है ।
उसमें आना-जाना नहीं होता । उसमें उत्पत्ति-विनाश नहीं होता । वह ज्यों-का-त्यों
रहता है । ऐसा समझकर साधक अपने सत्तामात्र स्वरूप
(होनेपन)-में स्थित होकर चुप हो जाय । सत्तामें अर्थात् हमारे होनेपनमें मैंपन नहीं है । मैंपनका
सम्बन्ध भूलसे माना हुआ है । ‘मैं हूँ’‒इसमें ‘मैं’ नहीं है, पर ‘हूँ’ है । हमारा
अस्तित्व ‘मैं’ के बिना है । ‘है’-रूपसे एक परमात्मा ही
सब जगह परिपूर्ण है । उस ‘है’ का अंश ही ‘हूँ’ है । मैं हूँ, तू है, यह है
और वह है‒इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ है । अगर ‘मैं’ न रहे तो ‘हूँ’
नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ ही रहेगा । तात्पर्य है कि ‘हूँ’ भी वास्तवमें ‘है’ ही
है । यह बात अगर साधककी समझमें आ जाय तो बहुत लाभकी बात है ! जगत्की सत्ता ‘मैं’ के कारण ही है । जगत् ‘मैं’ से ही
पैदा होता है । जीवमें जो अहंभाव है, उसीसे यह जगत् प्रतीत होता है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । इसलिये जगत् न तो
परमात्माकी दृष्टिमें है, न जीवन्मुक्त महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी
दृष्टिमें है । हमारा जो होनापन है, उसमें मैंपन नहीं है । मैंपन जड़-विभागमें है,
जबतक हमारा सम्बन्ध जड़ताके साथ है, तबतक जन्म-मरण है । जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करके सत्तामात्रमें रहना मुक्ति है । यह मनुष्य है, यह पशु है, यह पक्षी है; यह जलचर है, यह थलचर
है, यह नभचर है; यह ईंट है, यह चूना है, यह पत्थर है‒सबमें ‘है’-पन रहता है ।
परन्तु साथमें ‘मैं’-पन होनेसे बन्धन हो जाता है । तत्त्वज्ञ पुरुषोंकी स्थिति
‘है’ में होती है । यद्यपि सबकी स्थिति ‘है’ में ही है, पर जड़ताके साथ सम्बन्ध
माननेसे ‘मैं हूँ’ हो गया । जड़ताका सम्बन्ध न रहे तो ‘मैं हूँ’ नहीं रहेगा,
प्रत्युत ‘मैं है’ रहेगा । इस स्थितिका नाम जीवन्मुक्ति है । पशु, पक्षी, देवता, राक्षस आदि सभीमें समान रीतिसे जो एक
सत्ता परिपूर्ण है, वह सत्ता परमात्माका स्वरूप है । उस सत्ताको ‘मैं’ के साथ
मिलानेसे जीव हो जाता है, ‘मैं’ से अलग करनेसे मुक्त हो जाता है और भगवान्के साथ
मिला देनेसे भक्त हो जाता है ।
मनुष्यका खास काम है‒जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद
करना; क्योंकि जड़ताको अपना और अपने लिये माननेसे ही सब अनर्थ हुए हैं । जड़ताको अपना और अपने लिये मानेंगे तो फिर जड़ता ही रहेगी,
चिन्मयता नहीं आयेगी । इसलिये शरीरको संसारकी सेवामें
लगाना है । केवल मनुष्ययोनि ही सेवा करनेके योग्य है । दूसरा कोई सेवा करनेके लिये
है ही नहीं । दूसरी योनियोंसे सेवा ले सकते हैं, पर वे सेवा कर नहीं सकतीं
। पेड़-पौधोंको हम अपने काममें ले सकते हैं,
पर वे खुद हमारा काम नहीं कर सकते । जो सेवा नहीं
करता, वह मनुष्यतासे गिर जाता है और पशुतामें चला जाता है । इसलिये मनुष्यको
चाहिये कि वह संसारसे मिली हुई वस्तुको संसारकी ही सेवामें लगा दे और बदलेमें कुछ
चाहे नहीं । संसारकी चीज संसारको दे दी तो चाहना किस बातकी ? संसारकी चीज संसारकी सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग हो गया । स्वयं
संसारसे अलग होकर चिन्मयतामें स्थित हो जाय‒यह ज्ञानयोग हो गया । स्वयं भगवान्में
लग जाय‒यह भक्तियोग हो गया । |