।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    फाल्गुन कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

कल्याणके तीन सुगम मार्ग



Listen



भगवान्‌के साथ सम्बन्ध केवल प्रेमकी प्राप्तिके लिये ही होना चाहिये । प्रेम प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है‒भगवान्‌में अपनापन । एकमात्र भगवान्‌को अपना माननेसे प्रेमकी जागृति होती है । प्रेमकी जागृति होनेपर अहम्‌का सर्वथा नाश हो जाता है । अहम्‌का सर्वथा नाश होनेपर भगवान्‌से दूरी, भेद और भिन्‍नता‒तीनों सर्वथा मिट जाते हैं ।

प्रेमकी जागृतिके बिना अहम्‌का सर्वथा नाश नहीं होता‒

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर ४९ । ३)

मुक्त महापुरुषमें भी प्रेमकी एक माँग (भूख) रहती है । इसलिये जो मुक्तिमें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान्‌ अपना प्रेम प्रदान करते हैं । इस दृष्टिसे मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है । प्रेमकी प्राप्तिके बिना साधनकी पूर्णता नहीं होती । भगवान्‌ ज्ञानस्वरूप होते हुए भी प्रेमके भूखे हैं । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके मार्गसे मोक्षकी प्राप्ति होनेपर भी एक सूक्ष्म अहम्‌ रहता है, जिसके कारण भगवान्‌से दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर उनसे अभिन्‍नता नहीं होती । यह सूक्ष्म अहम्‌ जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाला होता है । इस सूक्ष्म अहम्‌के कारण ही मुक्त महापुरुषोंमें तथा उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तोंमें परस्पर मतभेद रहता है । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर जब वह सूक्ष्म अहम्‌ सर्वथा मिट जाता है, तब सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और भगवान्‌से अभिन्‍नता हो जाती है । अभिन्‍नता होनेपर एक भगवान्‌के सिवाय अन्य किसीकी भी सत्ता नहीं रहती‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) ।

उपसंहार

उपनिषद्‌में आता है कि अकेलेमें भगवान्‌का मन नहीं लगा‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक १ । ४ । ३) । अतः खेल (प्रेम-लीला)-के लिये भगवान्‌ एकसे अनेकरूप हो गये‒‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय २ । ६) । उन अनेक रूपोंमें श्रीजी तो भगवान्‌के ही सम्मुख रहीं, पर जीव खेलके खिलौनों (शरीर-संसार)-में ही लग गये ! श्रीजी खिलौनोंमें नहीं लगीं तो उनको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति हो गयी और जीव खिलौनोंमें लग गये तो उनको जन्म-मरणरूप संसारकी प्राप्ति हो गयी । ये खिलौने अपने और अपने लिये हैं ही नहीं । ये तो केवल दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये ही हैं । इनको अपना और अपने लिये मानना बहुत बड़ी भूल है, जिसका त्याग करना मनुष्यका कर्तव्य है । यह एक ही भूल स्थानभेदसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि अनेक विकारोंके रूपमें हो जाती है । फिर भूलें बढ़ती ही रहती हैं । उनका कोई अन्त नहीं आता ।

अपने-आपको भूलनेसे देहाभिमान उत्पन्‍न हो जाता है । कर्तव्यको भूलनेसे अकर्तव्य होने लगता है । भगवान्‌को भूलनेसे नाशवान्‌के साथ सम्बन्ध हो जाता है । इस भूलको मिटानेके लिये तीन योग हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । विवेक-विचारपूर्वक संसारसे मिली हुई वस्तुओंसे अलग हो जाय‒यह ज्ञानयोग है । उन वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग है । मनुष्य स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान्‌में लग जाय‒यह भक्तियोग है । परन्तु जो ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोगमें न लगकर संसारमें अर्थात्‌ भोग और संग्रहमें लग जाता है, वह जन्म-मरणमें पड़ जाता है । वह जन्म गया तो मरना बाकी रहता है और मर गया तो जन्मना बाकी रहता है । इस प्रकार वह जन्म-मरणके चक्रमें घूमता रहता है‒‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’ ।

मनुष्यको तीन ही शक्तियाँ प्राप्त हैं‒जाननेकी शक्ति, करनेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । जाननेकी शक्ति ज्ञानयोगके लिये, करनेकी शक्ति कर्मयोगके लिये और माननेकी शक्ति भक्तियोगके लिये है । जाननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒अपने आपको जानना, करनेकी शक्तिका सदुपयोग है‒सेवा करना और माननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒भगवान्‌को मानना ।

वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य‒ये चारों ही चीजें जड़-विभागमें हैं । चेतन-विभाग (स्वरूप)-तक ये चीजें पहुँचती ही नहीं । इसलिये वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य संसारके हैं और संसारके ही काम आते हैं, अपने काम किंचिन्मात्र भी नहीं आते । जड़-विभाग अर्थात्‌ शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ भी नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता । शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद ही हमारे काम आता है, हमारे लिये हितकारी होता है । इसलिये शरीर-संसारकी सहायतासे कोई भी मनुष्य बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । शरीरके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ शरीर-संसारके ही काम आती हैं । उसका सम्बन्ध-विच्छेद ही स्वयंके काम आता है ।