Listen भगवान्के साथ सम्बन्ध केवल प्रेमकी प्राप्तिके
लिये ही होना चाहिये । प्रेम
प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है‒भगवान्में अपनापन । एकमात्र
भगवान्को अपना माननेसे प्रेमकी जागृति होती है । प्रेमकी जागृति होनेपर
अहम्का सर्वथा नाश हो जाता है । अहम्का सर्वथा नाश होनेपर भगवान्से दूरी, भेद
और भिन्नता‒तीनों सर्वथा मिट जाते हैं । प्रेमकी जागृतिके बिना अहम्का सर्वथा नाश नहीं होता‒ प्रेम
भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर
मल कबहुँ न जाई ॥ (मानस, उत्तर॰ ४९ । ३) मुक्त महापुरुषमें भी प्रेमकी एक माँग
(भूख) रहती है । इसलिये जो मुक्तिमें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान् अपना प्रेम
प्रदान करते हैं । इस दृष्टिसे मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है । प्रेमकी
प्राप्तिके बिना साधनकी पूर्णता नहीं होती । भगवान्
ज्ञानस्वरूप होते हुए भी प्रेमके भूखे हैं । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके
मार्गसे मोक्षकी प्राप्ति होनेपर भी एक सूक्ष्म अहम् रहता है, जिसके कारण भगवान्से
दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर उनसे अभिन्नता नहीं होती । यह सूक्ष्म अहम्
जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाला होता है । इस सूक्ष्म अहम्के कारण ही मुक्त महापुरुषोंमें तथा उनकी मान्यताओं
और सिद्धान्तोंमें परस्पर मतभेद रहता है । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर
जब वह सूक्ष्म अहम् सर्वथा मिट जाता है, तब सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और भगवान्से
अभिन्नता हो जाती है । अभिन्नता होनेपर एक भगवान्के सिवाय अन्य किसीकी भी सत्ता
नहीं रहती‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । उपसंहार उपनिषद्में आता है कि अकेलेमें भगवान्का मन नहीं लगा‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक॰ १ । ४ । ३) । अतः खेल (प्रेम-लीला)-के लिये भगवान् एकसे अनेकरूप हो
गये‒‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय॰ २ । ६) । उन अनेक रूपोंमें श्रीजी तो भगवान्के ही सम्मुख रहीं, पर
जीव खेलके खिलौनों (शरीर-संसार)-में ही लग गये ! श्रीजी खिलौनोंमें नहीं लगीं तो
उनको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति हो गयी और जीव खिलौनोंमें लग गये तो उनको
जन्म-मरणरूप संसारकी प्राप्ति हो गयी । ये खिलौने अपने और अपने लिये हैं ही नहीं ।
ये तो केवल दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये ही हैं । इनको अपना और अपने लिये मानना
बहुत बड़ी भूल है, जिसका त्याग करना मनुष्यका कर्तव्य है । यह एक ही भूल स्थानभेदसे
काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि अनेक विकारोंके रूपमें हो
जाती है । फिर भूलें बढ़ती ही रहती हैं । उनका कोई अन्त नहीं आता । अपने-आपको भूलनेसे देहाभिमान उत्पन्न हो जाता
है । कर्तव्यको भूलनेसे अकर्तव्य होने लगता है । भगवान्को भूलनेसे नाशवान्के साथ
सम्बन्ध हो जाता है । इस
भूलको मिटानेके लिये तीन योग हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । विवेक-विचारपूर्वक संसारसे मिली हुई वस्तुओंसे अलग हो जाय‒यह
ज्ञानयोग है । उन वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग है । मनुष्य
स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान्में लग जाय‒यह
भक्तियोग है । परन्तु जो ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोगमें न लगकर
संसारमें अर्थात् भोग और संग्रहमें लग जाता है, वह जन्म-मरणमें पड़ जाता है । वह
जन्म गया तो मरना बाकी रहता है और मर गया तो जन्मना बाकी रहता है । इस प्रकार वह
जन्म-मरणके चक्रमें घूमता रहता है‒‘पुनरपि जननं पुनरपि
मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’ । मनुष्यको तीन ही शक्तियाँ प्राप्त हैं‒जाननेकी
शक्ति, करनेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । जाननेकी शक्ति ज्ञानयोगके लिये, करनेकी शक्ति कर्मयोगके लिये और माननेकी
शक्ति भक्तियोगके लिये है । जाननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒अपने
आपको जानना, करनेकी शक्तिका सदुपयोग है‒सेवा करना और माननेकी शक्तिका सदुपयोग है‒भगवान्को
मानना ।
वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य‒ये चारों ही चीजें
जड़-विभागमें हैं । चेतन-विभाग (स्वरूप)-तक ये चीजें पहुँचती ही नहीं । इसलिये
वस्तु, शरीर, योग्यता और सामर्थ्य संसारके हैं और संसारके ही काम आते हैं, अपने
काम किंचिन्मात्र भी नहीं आते । जड़-विभाग अर्थात् शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ
भी नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता ।
शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद ही हमारे काम आता है, हमारे लिये हितकारी होता है ।
इसलिये शरीर-संसारकी सहायतासे कोई भी मनुष्य बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता । शरीरके
द्वारा होनेवाली क्रियाएँ शरीर-संसारके ही काम आती
हैं । उसका सम्बन्ध-विच्छेद ही स्वयंके काम आता है । |