।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

कल्याणके तीन सुगम मार्ग



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जो न तो भगवान्‌पर विश्‍वास करता है और न शरीर-संसारपर ही विश्‍वास करता है, प्रत्युत अपने-आपपर विश्‍वास करता है, वह ज्ञानयोगका साधक हो जाता है । ऐसा साधक ‘मैं कौन हूँ’‒इसकी खोज करता है । ‘मैं’ की खोज करते-करते ‘मैं’ मिट जाता है और ‘है’ रह जाता है । साधक ‘है’ (परमात्मतत्त्व)-को स्वीकार करे अथवा न करे, पर अन्तमें प्राप्ति ‘है’ की ही होती है । जैसे, कोई कितना ही कूदे-फाँदे या नाचे, पर अन्तमें वह जमीनपर ही टिकेगा !

एक सत्तामात्र है‒इस प्रकार दृढ़तापूर्वक परमात्म-तत्त्वपर विश्‍वास होनेसे शरीर तथा संसारका विश्‍वास निर्जीव, फीका हो जाता है । कारण कि परस्परविरुद्ध दो विश्‍वास एक साथ नहीं रह सकते । जब साधक यह स्वीकार करता है कि परमात्मा अद्वितीय है, सदा है, सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है, सर्वसुहृद्‌ है, परम दयालु है, सभीका है और सब जगह है, तब उसकी परमात्मापर स्वतः श्रद्धा जाग्रत्‌ हो जाती है । परमात्मामें श्रद्धा-विश्‍वास होनेपर साधक एक परमात्माके सिवाय दूसरे किसीकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता ही नहीं । ऐसी स्थितिमें जैसे नींदसे जागते ही स्वप्‍नकी विस्मृति तथा जाग्रतकी स्मृति हो जाती है, ऐसे ही साधकके भीतर स्वतः परमात्मा (‘है’)-के नित्य सम्बन्धकी स्मृति जाग्रत्‌ हो जाती है और संसार (‘नहीं’)-की सर्वथा विस्मृति हो जाती है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । परमात्माके साथ नित्य सम्बन्धकी स्मृति जाग्रत्‌ होते ही साधककी परमात्मासे अभिन्‍नता अथवा आत्मीयता हो जाती है । परमात्मासे अभिन्‍नता होते ही साधकको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है, जो मानवजीवनका चरम लक्ष्य है ।

एक शंका होती है कि जब परमात्मा सब समयमें तथा जब जगह विद्यमान है, तो फिर साधकको उससे दूरी क्यों प्रतीत होती है ? इसपर गहरा विचार करनेसे पता लगता है कि जब साधक मिले हुए तथा बिछुड़नेवाले शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहता है, तब उसको परमात्मासे दूरी प्रतीत होती है । कारण कि परमात्माकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत क्रिया और पदार्थके त्यागसे अपने ही द्वारा होती है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको संसारकी सेवामें समर्पित कर दे और अपने-आपको (सत्तामात्र स्वरूपको) भगवान्‌के समर्पित कर दे । जब साधक स्वयं सब ओरसे विमुख होकर एकमात्र भगवान्‌के ही शरणागत हो जाता है, तब भगवान्‌ कृपापूर्वक उसको अपना लेते हैं, अपनेसे अभिन्‍न कर लेते हैं ।

विचारपूर्वक देखें तो जो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, अवस्था, परिस्थिति आदिमें परिपूर्ण है, उससे दूरी कैसे सम्भव है ? यह सिद्धान्त है कि जिससे दूरी नहीं होती, उसकी प्राप्ति क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत चाहनामात्रसे होती है । अगर साधक मिले हुए और बिछुड़नेवाले प्राणी-पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने और भगवान्‌के साथ आत्मीयता (अपनापन) कर ले तो फिर भगवान्‌से दूरी नहीं रहेगी; क्योंकि वास्तवमें वह भगवान्‌का ही अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदिको तो अपना मान लेता है, पर जिसने उनको दिया है, उसको (भगवान्‌को) अपना नहीं मानता । वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत उसको देनेवाला अपना है । जिस क्षण साधक भगवान्‌को अपना मानकर उनके शरणागत हो जाता है, उसी क्षण भगवान्‌ उसको अपना लेते हैं । कारण कि भगवान् साधकका भूतकाल न देखकर उसके वर्तमानको देखते हैं, उसके आचरणोंको न देखकर उसके भावोंको देखते हैं‒

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।

करत सुरति सय  बार हिए  की ॥

(मानस, बाल२९ । ३)

वे अपने शरणागत भक्तको निर्भय, निःशोक, निश्‍चिन्त और निःशंक कर देते हैं । परन्तु साथमें अन्यका आश्रय नहीं रहना चाहिये  । अन्यका आश्रय, अन्यका विश्‍वास और अन्यका सम्बन्ध रहनेसे भगवान्‌का आश्रय दृढ़ नहीं होता । जिस मनुष्यको एक भगवान्‌के सिवाय और कोई अपना नहीं दीखता तथा जिसको अपनेमें कोई विशेषता नहीं दीखती, वह सुगमतापूर्वक भगवान्‌के आश्रित हो जाता है । भगवान्‌के आश्रित होनेपर उसको अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता । उसके द्वारा होनेवाली प्रत्येक प्रवृत्ति भगवान्‌की पूजा होती है ।