।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, बुधवार

नित्यप्राप्तकी प्राप्ति



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भगवान्‌ने जीवको अपना कल्याण करनेके लिये ही मनुष्य-शरीर दिया है । इस दृष्टिसे मनुष्ययोनि वास्तवमें साधनयोनि है । साधनयोनि होनेके नाते मनुष्यमात्र अपना कल्याण कर सकता है, जन्म-मरणसे मुक्त हो सकता है । क्यों हो सकता है ? क्योंकि वास्तवमें वह मुक्त है । इसलिये साधकको सर्वप्रथम इस सत्यको दृढ़तासे स्वीकार करना चाहिये कि मैं मुक्त हो सकता हूँ । क्यों हो सकता हूँ ? क्योंकि मैं मुक्त हूँ । मैं परमात्माको प्राप्त कर सकता हूँ । क्यों कर सकता हूँ ? क्योंकि परमात्मा प्राप्त हैं । जो सब देश हैं, सब कालमें हैं, सब व्यक्तियोंमें हैं, सब वस्तुओंमें हैं, सब अवस्थाओंमें हैं, सब घटनाओंमें हैं, सब परिस्थितियोंमें हैं, वे परमात्मा क्या हमसे कभी अलग हो सकते हैं ? जैसे परमात्मा हमसे कभी अलग नहीं होते, ऐसे ही शरीरके साथ हमारा कभी मिलन नहीं होता । आजतक हम अनेक योनियोंमें गये, अनेक शरीर धारण किये, पर कोई भी शरीर हमारे साथ नहीं रहा, जबकि हम स्वयं वे-के-वे ही रहे । अतः साधकको यह सत्य स्वीकार कर लेना चाहिये कि परमात्माके साथ हमारा अविभाज्य सम्बन्ध है और संसारके साथ शरीरका अविभाज्य सम्बन्ध है । इसलिये हम शरीरके द्वारा अपने लिये कुछ नहीं कर सकते । शरीरसे कोई भी क्रिया करेंगे तो वह संसारके लिये ही होगी, अपने लिये नहीं । क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है । हमारा स्वरूप अक्रिय है । अगर हम कोई भी क्रिया न करना चाहें तो शरीरकी क्या जरूरत है ?

अब साधकको विचार करना है कि जब शरीरके द्वारा हम अपने लिये कुछ कर ही नहीं सकते, केवल संसारके लिये ही कर सकते हैं, तो फिर अपने लिये क्या कर सकते हैं ? कैसे कर सकते हैं ? विचार करनेपर पता लगता है कि हम अपने लिये अपने द्वारा निष्काम हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम निष्काम हैं । हम अपने लिये निर्मम (ममतारहित) हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम निर्मम हैं । हम अपने लिये निरहंकार (अहंकाररहित) हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम निरहंकार हैं । गीतामें भगवान्‌ भी हमें निष्काम, निर्मम और निरहंकार होनेके लिये कहते हैं[*] । क्यों कहते हैं ? क्योंकि हम निष्काम, निर्मम और निरहंकार हैं ।

हम अपने द्वारा भगवान्‌को अपना मान सकते हैं । क्यों मान सकते हैं ? क्योंकि भगवान्‌ अपने हैं । दूसरा कोई अपना है ही नहीं, हो सकता ही नहीं । हम अपने द्वारा संसारसे अलग हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम संसारसे अलग हैं‒‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदारण्यक४ । ३ । १५) । तात्पर्य यह निकला कि हम अपने लिये निष्काम, निर्मम, निरहंकार हो सकते हैं और अभी हो सकते हैं । ऐसा होनेके लिये शरीरकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत अपने ही द्वारा हो सकते हैं । परिश्रम और पराश्रयका त्याग करके हम अपने ही द्वारा विश्राम और भगवदाश्रय पा सकते हैं । इसमें हम पराधीन नहीं है, प्रत्युत सर्वथा स्वाधीन हैं ।

शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध कभी था नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता ही नहीं । अतः शरीरके द्वारा हम भोजन तो कर सकते हैं, पर भजन नहीं कर सकते । सेवा भी हम शरीरके द्वारा नहीं कर सकते, प्रत्युत शरीरसे अलग होकर कर सकते हैं । कैसे कर सकते हैं ? अपने द्वारा बुराई-रहित होकर कर सकते हैं । क्यों कर सकते हैं ? क्योंकि हम बुराई-रहित हैं‒‘चेतन अमल सहज सुखरासी ॥’ (मानस, उत्तर ११७ । २) । भजन भी हम अपने ही द्वारा कर सकते हैं । कैसे कर सकते हैं ? भगवान्‌में प्रेम करके कर सकते हैं । क्यों कर सकते हैं ? क्योंकि हम भगवान्‌के प्रेमी है । शरीरके द्वारा हम सेवा और प्रेमकी चर्चा तो कर सकते हैं, पर सेवा और प्रेम नहीं कर सकते ।

संसारसे मिले हुए शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके द्वारा हम संसारको ही प्राप्त कर सकते हैं, परमात्माको नहीं । परमात्माको न शरीरके द्वारा पकड़ा जा सकता है, न मनके द्वारा पकड़ा जा सकता है । न इन्द्रियोंके द्वारा पकड़ा जा सकता है और न बुद्धिके द्वारा पकड़ा जा सकता है । यदि इनके द्वारा परमात्मा पकड़ा जा सकता तो फिर मशीनके द्वारा भी परमात्मा पकड़ा जा सकता ! इसलिये यदि साधक परमात्माको प्राप्त करना चाहता है तो उसको शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके आश्रयका त्याग कारण पड़ेगा, क्रियाके आश्रयका त्याग करना पड़ेगा । परमात्मा इन शरीरादि जड़ वस्तुओंके द्वारा नहीं प्राप्त होता, प्रत्युत इनके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद)-से प्राप्त होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्माको पानेके लिये, उनका प्रेमी बननेके लिये हमें न तो शरीरकी आवश्यकता है, न इन्द्रियोंकी आवश्यकता है, न मनकी आवश्यकता है और न बुद्धिकी ही आवश्यकता है । शरीरके द्वारा मिलनेवाली वस्तु सबको नहीं मिल सकती, पर अपने द्वारा मिलनेवाली वस्तु (परमात्मा) सभीको मिल सकती है । जो किसीको मिले, किसीको न मिले, उसका नाम परमात्मा नहीं है । परमात्मा तो वह है, जो सभीको मिल सकता है । क्यों मिल सकता है ? क्योंकि वह मिला हुआ ही है । जब परमात्माके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं तो फिर परमात्मा अप्राप्त कैसे ?

नारायण !   नारायण !    नारायण !  नारायण !



[*]  विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्‍चरति निःस्पृहः ।

                        निर्ममो निरहङ्कारः   स शान्तिमधिगच्छति ॥ (गीता २ । ७१)