।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
     फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

भगवान्‌ आज ही मिल सकते हैं



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परमात्मप्राप्‍ति बहुत सुगम है । इतना सुगम दूसरा कोई काम नहीं है । परन्तु केवल परमात्माकी ही चाहना रहे, साथमें दूसरी कोई भी चाहना न रहे । कारण कि परमात्माके समान दूसरा कोई है ही नहीं[*]जैसे परमात्मा अनन्य हैं, ऐसे ही उनकी चाहना भी अनन्य होनी चाहिये । सांसारिक भोगोंके प्राप्‍त होनेमें तीन बातें होनी जरूरी हैंइच्छा, उद्योग और प्रारब्ध । पहले तो सांसारिक वस्तुको प्राप्‍त करनेकी इच्छा होनी चाहिये, फिर उसकी प्राप्‍तिके लिये कर्म करना चाहिये । कर्म करनेपर भी उसकी प्राप्‍ति तब होगी, जब उसके मिलनेका प्रारब्ध होगा । अगर प्रारब्ध नहीं होगा तो इच्छा रखते हुए और उद्योग करते हुए भी वस्तु नहीं मिलेगी । इसलिये उद्योग तो करते हैं नफेके लिये, पर लग जाता है घाटा ! परन्तु परमात्माकी प्राप्‍ति इच्छामात्रसे होती है । उसमें उद्योग और प्रारब्धकी जरूरत नहीं है । परमात्माके मार्गमें घाटा कभी होता ही नहीं, नफा-ही-नफा होता है ।

एक परमात्माके सिवाय कोई भी चीज इच्छामात्रसे नहीं मिलती । कारण यह है कि मनुष्यशरीर परमात्माकी प्राप्‍तिके लिये ही मिला है । अपनी प्राप्‍तिका उद्देश्य रखकर ही भगवान्‌ने हमारेको मनुष्यशरीर दिया है । दूसरी बात, परमात्मा सब जगह हैं । सुईकी तीखी नोक टिक जाय, इतनी जगह भी भगवान्‌से खाली नहीं है । अतः उनकी प्राप्‍तिमें उद्योग और प्रारब्धका काम ही नहीं है । कर्मोंसे वह चीज मिलती है, जो नाशवान् होती है । अविनाशी परमात्मा कर्मोंसे नहीं मिलते । उनकी प्राप्‍ति उत्कट इच्छामात्रसे होती है ।

पुरुष हो या स्‍त्री हो, साधु हो या गृहस्थ हो, पढ़ा-लिखा हो या अपढ़ हो, बालक हो या जवान हो, कैसा ही क्यों न हो, वह इच्छामात्रसे परमात्माको प्राप्‍त कर सकता है । परमात्माके सिवाय न जीनेकी चाहना हो, न मरनेकी चाहना हो, न भोगोंकी चाहना हो, न संग्रहकी चाहना हो । वस्तुओंकी चाहना न होनेसे वस्तुओंका अभाव नहीं हो जायगा । जो हमारे प्रारब्धमें लिखा है, वह हमारेको मिलेगा ही । जो चीज हमारे भाग्यमें लिखी है, उसको दूसरा नहीं ले सकतायदस्मदीयं न ही तत्परेषाम्हमारेको आनेवाला बुखार दूसरेको कैसे आयेगा ? ऐसे ही हमारे प्रारब्धमें धन लिखा है तो जरूर आयेगा । परन्तु परमात्माकी प्राप्‍तिमें प्रारब्ध नहीं है ।

परमात्मा किसी मूल्यके बदले नहीं मिलते । मूल्यसे वही वस्तु मिलती है, जो मूल्यसे छोटी होती है । बाजारमें किसी वस्तुके जितने रुपये लगते हैं, वह वस्तु उतने रुपयोंकी नहीं होती । हमारे पास ऐसी कोई वस्तु (क्रिया और पदार्थ) है ही नहीं, जिससे परमात्माको प्राप्‍त किया जा सके । वह परमात्मा अद्वितीय है, सदैव है, समर्थ है, सब समयमें है और सब जगह है । वह हमारा है और हमारेमें हैसर्वस्य चाहं हृदि सन्‍निविष्टः’ (गीता १५ । १५), ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८ । ६१) । वह हमारेसे दूर नहीं है । हम चौरासी लाख योनियोमें चले जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे । स्वर्ग या नरकमें चले जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । पशु-पक्षी या वृक्ष आदि बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । देवता बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापी, अन्यायी-से-अन्यायी बन जायँ तो भी वे भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे । ऐसे सबके हृदयमें रहनेवाले भगवान्‌की प्राप्‍ति क्या कठिन होगी ? पर जीनेकी इच्छा, मानकी इच्छा, बड़ाईकी इच्छा, सुखकी इच्छा, भोगकी इच्छा आदि दूसरी इच्छाएँ साथमें रहते हुए भगवान् नहीं मिलते । कारण कि भगवान्‌के समान तो भगवान् ही हैं । उनके समान दूसरा कोई था ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं, फिर वे कैसे मिलेंगे ? केवल भगवान्‌की चाहना होनेसे ही वे मिलेंगे । अविनाशी भगवान्‌के सामने नाशवान्‌की क्या कीमत है ? क्या नाशवान् क्रिया और पदार्थके द्वारा वे मिल सकते हैं ? नहीं मिल सकते । जब साधक भगवान्‌से मिले बिना नहीं रह सकता, तब भगवान् भी उससे मिले बिना नहीं रहते; क्योंकि भगवान्‌का स्वभाव हैंये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४ । ११) जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।

मान लें कि कोई मच्छर गरुड़जीसे मिलना चाहे और गरुड़जी भी उससे मिलना चाहें तो पहले मच्छर गरुड़जीके पास पहुँचेगा या गरुड़जी मच्छरके पास पहुँचेंगे ? गरुड़जीसे मिलनेमें मच्छरकी ताकत काम नहीं करेगी । इसमें तो गरुड़जीकी ताकत ही काम करेगी । इसी तरह परमात्मप्राप्‍तिकी इच्छा हो तो परमात्माकी ताकत ही काम करेगी । इसमें हमारी ताकत, हमारे कर्म, हमारा प्रारब्ध काम नहीं करेगा, प्रत्युत हमारी चाहना ही काम करेगी । हमारी चाहनाके सिवाय और किसी चीजकी आवश्यकता नहीं है ।



[*] न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥

(गीता ११ । ४३)

हे अनन्त प्रभावशाली भगवन् ! इस त्रिलोकीमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक तो हो ही कैसे सकता है !’