Listen हम तो भगवान्के पास नहीं पहुँच सकते तो क्या भगवान् भी
हमारे पास नहीं पहुँच सकते ? हम कितना ही जोर लगायें, पर भगवान्के पास नहीं पहुँच सकते । परन्तु भगवान् तो
हमारे हृदयमें ही विराजमान हैं ! हम भगवान्को दूर मानते हैं, इसलिये भगवान् हमसे
दूर होते हैं । द्रौपदीने भगवान्को ‘गोविन्द
द्वारकावासिन्’ कहकर पुकारा तो भगवान्को द्वारका जाकर आना पड़ा
। वह यहाँ कहती तो वे चट यहीं प्रकट हो जाते ! अगर हम ऐसा मानते हैं कि भगवान् अभी
नहीं मिलेंगे तो वे नहीं मिलेंगे; क्योंकि हमने आड़ लगा दी । गोरखपुरकी एक घटना है । संवत् २००० से पहलेकी बात है । मैं
गोरखपुरमें व्याख्यान देता था । वहाँ सेवारामजी
नामके एक सज्जन थे, जो बैंकमें काम करते थे । एक दिन मैंने व्याख्यानमें कह दिया कि अगर आपका दृढ़ विचार
हो जाय कि भगवान् आज मिलेंगे तो वे आज ही मिल जायँगे ! उन सज्जनको यह बात लग गयी ।
उन्होंने विचार कर लिया कि हमें तो आज ही भगवान्से
मिलना है । वे पुष्पमाला, चन्दन आदि ले आये कि भगवान् आयेंगे तो उनको माला पहनाऊँगा,
चन्दन चढाऊँगा ! वे कमरा बन्द करके भगवान्के आनेकी प्रतीक्षामें
बैठ गये । समयपर भगवान्के आनेकी सम्भावना भी हो गयी और सुगन्ध भी आने लगी,
पर भगवान् प्रकट नहीं हुए । दूसरे दिन उन्होंने मेरेसे कहा
कि आज आप मेरे घरसे भिक्षा लें । मैं कई घरोंसे भिक्षा लेकर पाता था । उस दिन उनके
घर गया तो उन्होंने मेरेसे पूछा कि भगवान् मिलनेवाले थे,
सुगन्ध भी आ गयी थी, फिर बाधा क्या लगी कि वे मिले नहीं ?
मैंने कहा कि भाई ! मेरेको इसका क्या पता ?
परन्तु मैं तुम्हारेसे पूछता हूँ कि
क्या तुम्हारे मनमें यह बात आती थी कि इतनी जल्दी भगवान् कैसे मिलेंगे ? वे
बोले कि यह बात तो आती थी ! मैंने कहा कि इसी बातने अटकाया ! अगर मनमें यह बात होती
कि भगवान् मेरेको अवश्य मिलेंगे, उनको मिलना ही पड़ेगा तो वे जरूर मिलते । भगवान्
ऐसे कैसे जल्दी मिलेंगे‒ऐसा भाव करके तुमने ही बाधा लगायी है । अगर आप विचार
कर लें कि भगवान् आज मिलेंगे तो वे आज ही मिल जायँगे ! परन्तु मनमें यह छाया नहीं
आनी चाहिये कि इतनी जल्दी कैसे मिलेंगे ? भगवान् आपके कर्मोंसे अटकते नहीं । अगर आपके दुष्कर्मसे,
पापकर्मसे भगवान् अटक जायँ तो वे मिलकर भी क्या निहाल
करेंगे ?
परन्तु भगवान् किसी कर्मसे अटकते नहीं । ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं, जो
भगवान्को मिलनेसे रोक दे । वे न तो पापकर्मोंसे
अटकते हैं, न पुण्यकर्मोंसे अटकते हैं
। वे सबके लिये
सुलभ हैं । अगर भगवान् हमारे
पापोंसे अटक जायँ तो हमारे पाप भगवान्से भी प्रबल हुए ! अगर पाप प्रबल (बलवान्) हैं
तो भगवान् मिलकर भी क्या निहाल करेंगे ? जो पापोंसे अटक जाय, उसके मिलनेसे क्या लाभ ? परन्तु भगवान् इतने निर्बल नहीं हैं,
जो पापोंसे अटक जायँ । उनके समान बलवान् कोई है नहीं,
हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता ही नहीं । आपकी जोरदार इच्छा
हो जाय तो आप कैसे ही हों, भगवान् तो मिलेंगे, मिलेंगे, मिलेंगे
! उनको मिलना पड़ेगा, इसमें सन्देह नहीं है । परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही तो
मानवजन्म मिला है, नहीं तो पशुमें और मनुष्यमें क्या
फर्क हुआ ? खादते
मोदते नित्यं शुनकः शूकरः
खरः । तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी ॥ सूकर
कूकर ऊँट खर, बड़
पशुअन में चार । तुलसी हरि की भगति बिनु, ऐसे
ही नर नार ॥ देवता भोगयोनि है । वे भी चाहते हैं कि भगवान्
हमारेको मिलें‒‘देवा
अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’ (गीता ११ । ५२) । वे भगवान्को चाहते तो हैं, पर भोगोंकी इच्छाको नहीं छोड़ते । यही दशा मनुष्योंकी है । अगर आप हृदयसे भगवान्को चाहो तो उनको मिलना ही पड़ेगा, इसमें
सन्देह नहीं है । पर आप ही बाधा लगा दो कि भगवान् नहीं मिलेंगे, तो
फिर वे नहीं मिलेंगे ! गीतामें साफ लिखा है‒ अपि
चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव
स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ क्षिप्रं
भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । कौन्तेय
प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ (९ । ३०-३१) ‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु
ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है ।’ ‘वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और
निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्तका पतन
नहीं होता‒ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो ।’
तात्पर्य है कि दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी यदि ‘अनन्यभाक्’ हो जाय अर्थात् भगवान्के सिवाय कोई चाहना न
रखे तो उसको भी साधु मान लेना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय पक्का कर लिया है कि भगवान् जरूर मिलेंगे
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